उत्तर कन्या चलो
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उत्तर कन्या चलो

उत्तर कन्या चलो

चाय बगानियारों के लिए 20 मार्च 2025, एक ऐतिहासिक दिन था। इस दिन 40 हजार से अधिक बगानियार अभियान में शामिल हुए, और अपनी एकजुटता को दिखाते हुए 5 डेसीमल और 30% जमीन संबंधी सरकारी नीतियों का जम कर विरोध किया। सिलीगुड़ी में ‘उत्तर कन्या चलो’ अभियान, हाल के वर्षों में सरकारी नीतियों के विरूद्ध में, बगानियारों का सबसे बड़ा विरोध प्रदर्शन था। यह अभियान 28 सामाजिक संगठनों का संयुक्त गठजोड़, ‘Joint Action Committee’ के द्वारा बुलाया गया था, जिसमें ‘United Form for आदिवासी Rights’ ने, महत्वपूर्ण भूमिका निभाया। इस अभियान में शामिल होने के लिए, तराई पहाड़ और डुवार्स से भारी संख्या में बगानियार आए हुए थे जिसमें महिलाओं की सबसे बड़ी संख्या थी। कुछ दर्जनों महिलाओं ने अपने दूधपीते बच्चों को पीठ में बाँध कर लाईं थीं।

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उत्तर कन्या चलो अभियान

इसके अलावा चाय बागानों के साथ सहानुभूति रखने वाले नौकरीपेशा, रिटायर्ड और अन्य लोग भी दूर-दराज के शहरों और गाँवों से आए हुए थे। जमीन का मुद्दा कितना महत्वपूर्ण है, यह लोगों के नारों से पता चल रहा था। रैली के बाद Joint Action Committee के नेताओं ने सिलीगुड़ी स्थित, राज्य सरकार के सचिवालय उत्तर कन्या में जाकर, सरकार को एक मेमोरंडम दिया, जिसमें श्रमिक विरोधी सरकारी नोटिफिकेशनों को रद्द करने और बगानियारों को उनके घरभिट्ठा की पूरी जमीन का खतियान देने की मांग की गई।

सिलीगुड़ी में जमा होकर बगानियारों ने टी टूरिज्म के नाम पर 30% बागान की खाली जमीन को पूँजीपतियों को, तथा चाय मजदूरों को सिर्फ 5 डेसीमल Non Transferable और Only Heritable जमीन देने के लिए निकाले गए नोटिफिकेशन को रद्द करने की मांग की। बगानियारों का कहना है कि ये दोनों नोटिफिकेशन बगानियारों के डेढ़ सदी से भी अधिक पुराने घर भिट्ठा की पूरी जमीनी अधिकार को खत्म कर देगा, और उन्हें अपने 170 सालों के खानदानी घर जमीन से भी बेदखल होना पड़ेगा। दुनिया भर की सरकारें अपने नागरिकों को बसाती हैं, लेकिन यहाँ तो सरकार बसे लोगों को उजाड़ रही है।

इस तरह की घटना सिलीगुड़ी से सटे चाँदमुनी चाय बागान में हो चुका है। चाँदमुनी चाय बागान का नामोनिशान खत्म हो गया है और चाँदमुनी चाय बागान की जमीन पर आज सिलीगुड़ी शहर का एक उप नगर उतरायण नामक शहर बसा हुआ है। वहाँ के चाय श्रमिक विस्थापित होकर हमेशा के लिए खत्म हो गए।

Joint Action Committee के नेताओं का कहना है कि चाय बागान में कहीं भी 2,3% से अधिक खाली जमीन नहीं है। जो भी खाली जमीन है, वह चाय बागान के निवासियों की सामूहिक सामाजिक जरूरत की भूमि है, जिसमें खेल के मैदान, पूजा स्थल, दुकान, बाजार, स्कूल आदि हैं। ऐसे में सरकार की 30% खाली जमीन को बाहरी पूँजीपतियों को टी टूरिज्म के नाम पर देने के लिए, नोटिफिकेशन निकालना बहुत गलत है। यह Indirect रूप से बगानियारों की बस्ती को स्थानांतरण करके उन्हें चा सुंदरी नामक घर में विस्थापित करने की नीति साबित होगी।

The Tea Tourism and Allied Business Activities Policy में बगानियारों के क्वार्टर को बिजनेस के लिए दूसरी जगह स्थानांतरण करने का प्रावधान रखा गया है। उन्हें विस्थापित करके चा सुंदरी नामक बिना जमीन वाले छोटे से घर में रखने का प्लान बनाया गया है।

यह नीति 170 सालों से बसे हुए बगानियारों को, उनके पैत्रिक, ऐतिहासिक, मानवीय कानूनी और संवैधानिक जैसे अधिकारों को खत्म करने की एक चाल है। जबकि उन्हें First Settlers, Land developers, सहित Limitation Act के Adverse Possession Rule, भारत के मूल निवासी, भूमि पुत्र, आदिवासी के रूप में पहली प्राथमिकता में अपने घर भिट्ठा की पूरी जमीन को पाने का हक और अधिकार है।

दूसरे शब्दों में इसे जमीन हड़पो नीति कहा जा रहा है। इस नीति के कारण, कई बागानों में गैर कानूनी रूप से चाय के पौधों को उखाड़ा जा रहा हैं, और बागान में खाली जमीन तैयार किया जा रहा है। हाल ही एक बागान में आग भी लगाई गई थी। खाली जमीन दिखा कर बागान कंपनियाँ उन जगहों पर टी टूरिज्म के प्रोजेक्ट के लिए सरकार से अनुमति ले रही हैं। सरकार द्वारा जारी नोटिफिकेशन में चाय बागान के पौधों को उखाड़ने की अनुमति नहीं दी है। बल्कि कहा गया है कि किसी भी प्रोजेक्ट के लिए चाय बागान क्षेत्र को कम नहीं किया जा सकता है। चाय पौधों को उखाड़ने के लिए टी बोर्ड, केन्द्र सरकार और कई कानूनों के अधीन विशेष अनुमति चाहिए। जिसके लिए अब तक कोई कानून नहीं बना है, न ही कोई नोटिफिकेशन निकाला गया है। 1950 में देश के नागरिकों को Right to Property मिला था। जो अब Constitutional Rights के रूप में प्राप्त है। लेकिन सरकार इन संवैधानिक अधिकारों से भी बगानियारों को वंचित करना चाहती है।

नोटिफिकेशन में दिए गए 30% Freehold और Transferable भूमि के मालिकाना हक पाने के लालच में बागान कंपनियाँ गैर कानूनी रूप से चाय पौधों को उखाड़ रही हैं। तराई के पाँच छह चाय बागानों में चाय के पौधों को उखाड़ कर होटल और बिल्डिंग बनाने के लिए राज्य सरकार से अनुमति ली गई है। बड़े होटल बने हैं और सरकार के नोटिफिकेशन को धता बता कर बाहरी आबादी को वहाँ रोजगार दिए गए हैं। चाय पौधे उखाड़ कर न्यू चमटा, हँसखवा, डागापुर, कमला जैसे चाय बागान में खाली जगह बनाए गए हैं। चाय बागान के लोगों को 80% रोजगार देने के शर्तों का घोर उल्लंघन किया गया है। राज्य सरकार, चाय कंपनियों के इन गैर कानूनी कार्यों को पूरी तरह नजरांदाज कर रही है। कंपनियों के इस गैर कानूनी कार्यों को राज्य सरकार के मंत्रालय और विभाग भी टी टूरिज्म के प्रोजेक्ट को अनुमति दे कर गैर कानूनी कार्यों को प्रोत्साहित कर रही है। इसमें भारी भ्रष्टाचार हो रहा है।

यह एक खतरनाक ट्रेंड है और अंतिम रूप से इसका नुकसान चाय उद्योग और चाय मजदूरों को होगा। भारत सरकार की चुप्पी भी इस मामले में हैरान करने वाली है। जबकि वह राष्ट्रपति और मंत्रिमंडल के मंत्रियों को भेजे गए मेमोरंडम के आधार पर इस पर जाँच करके कार्रवाई कर सकती है। संविधान को बचाने का सबसे बड़ा उत्तरदयित्व तो भारत सरकार का ही है। Joint Action Committee के नेताओं का कहना है कि सरकार एक ओर तो महानगरों में रहने वाले पूँजी पति तथा विदेशों से आए हुए Refugees को खुद बुला कर Freehold और Transferable जमीन बाँट रही है, दूसरी ओर वह 170 वर्षों से बसे हुए भूमिपुत्र, मूलवासी बगानियारों को सिर्फ 5 डेसीमल Non Transferable और Only Heritable जमीन देने का नोटिफिकेशन निकाला है। यह उनके बड़े जमीन को छीनने और उन्हें भूमिहीन बनाने की योजना बन गई है।

बगानियार भारतीय नागरिकों को ऊँच नीच, गैर बराबरी समझने वाले इन नीतियों का विरोध बहुत स्वाभाविक है। भूमि संबंधी इन नीतियों में जंगल काट कर चाय बागान बनाने वाले समाज के योगदान को खत्म करके उन्हें हर तरह से वंचित करने का लक्ष्य दिख रहा है। भेदभाव भरे नोटिफिकेशन के द्वारा सरकार बगानियार समाज के साथ अन्याय और भेदभाव कर रही है। रैली में शामिल नेताओं का कहना है कि स्वतंत्र भारत में उनके साथ जितना अन्याय और अत्याचार किया जा रहा है, उतना तो अंग्रेजी उपनिवेश के शासन में भी नहीं किया गया था। बगानियार नेताओं का कहना है कि टूरिज्म के नाम पर सरकार उन्हें विस्थापित करने की योजना लेकर आई है और उनके साथ क्रूर अन्याय और भेदभाव कर रही है। वे जान देकर भी इन श्रमिक विरोधी नीतियों का विरोध करेंगे।

‘उत्तर कऩ्या चलो’ अभियान के रैली में न्यूनतम वेतन की भी मांग की गई। आज भी चाय मजदूरों को 250 रूपये दैनिक वेतन देकर उनका आर्थिक शोषण किया जा रहा है। चाय मजदूरों के लिए राज्य सरकार के द्वारा बनाए गए त्रिपक्षीय न्यूनतम सलाहकार समिति को 20 फरवरी 2025 को दस साल हो गए। पिछले दस साल में सरकार द्वारा संचालित समिति ने दिखावटी कार्य किया और इसके बहाने चाय मजदूरों को न्यूनतम वेतन से वंचित करने का कार्य किया है। केरल और कर्नाटक में न्यूनतम वेतन पर सिर्फ चार महीने में निर्णय होता है। लेकिन पश्चिम बंगाल सरकार 10 साल में भी निर्णय नहीं ले पाया। सलाहकार समिति के बहाने सरकार उन्हें न्यूनतम वेतन से वंचित कर रही है। यह कोर्ट के आदेश का भी अवमानना किया है। यदि सरकार चाहती तो संविधान की धारा 43 के तहत न्यूनतम वेतन दे सकती थी। न्यूनतम वेतन न देना, चाय मजदूरों के साथ हो रहे भेदभाव और ठगी का मामला बन गया है।

न्यूनतम वेतन तय होने से चाय मजदूरों को प्रति दिन 700 रूपये का हजिरा मिल सकता है, और उसे महीने में लगभग 18000 रूपये मिलते। लेकिन राज्य सरकार की नीति के कारण प्रत्येक चाय श्रमिक को प्रति महीने 11 हजार रूपये का नुकसान उठाना पड़ रहा है। यह उनकी गाढ़ी कमाई को लूटने का एक क्रुर तरीका बन गया है। न्यूनतम वेतन नहीं दे कर उन्हें समग्र रूप से गरीब और लाचार बनाया जा रहा है। न्यूनतम वेतन और जमीन का अधिकार नहीं मिलने के कारण आजाद भारत में चाय मजदूर गरीबी और अधिकार विहीन जीवन जीने के लिए अभिशप्त हो गए हैं। सरकारी नीतियों ने उन्हें भारत के सबसे ज्यादा वंचित और गरीब समाज बना दिया है।

चाय मजदूरों के लिए उत्तर कन्या अभियान एक सफल रैली थी, जिसमें पहाड़ और समतल सभी क्षेत्रों के चाय श्रमिकों ने एकजुटता दिखा कर अपनी एकता का परिचय दिया है। यदि वे इसी तरह साथ मिल कर आंदोलन करें तो उनके अधिकारों को कोई छीन नहीं सकता है।

चाय बागान उत्तर बंगाल का सबसे महत्वपूर्ण उद्योग है। कई दशकों में प्रथम बार 40 हजार से अधिक चाय मजदूरों ने सिलीगुड़ी में एक विशाल रैली निकाला, लेकिन उत्तर बंगाल से निकलने वाले न्यूज पेपर्स में दूसरे दिन के खबरों में रैली पर कोई समाचार प्रकाशित नहीं हुआ। लोकतंत्र का चौथा स्वतंत्र स्तंभ होने का दंभ भरने वाले अखबारों ने चाय मजदूरों के संघर्ष के खबरों को ब्लैक आउट करके बता दिया, कि वे चाय मजदूरों के संघर्ष में उनके साथ नहीं हैं, बल्कि उनका शोषण करने वाले कंपनियों, राजनैतिक पार्टियों और सरकार की गलत नीतियों के साथ हैं। अभियान के नेताओं का कहना है कि उत्तर बंगाल से निकलने वाले समाचार पत्रों ने बता दिया कि वे गोदी मीडिया हैं। अंतर्राष्ट्रीय मीडिया में भारतीय मीडिया क्यों सबसे निचले पायदान में है, यह साबित हो गया।

दार्जिलिंग पहाड़ के चाय बागानों में पिछले साल से ही First Flush यानी प्रथम पत्ती तोड़ने के पूर्व ही बोनस पर एग्रीमेंट की मांग की जा रही है। श्रमिकों और ट्रेड यूनियन नेताओं का कहना है कि First Flush के पहले ही बोनस के लिए एग्रीमेंट हो जाने पर उनके साथ ठगी, चालाकी और बेईमानी नहीं होगी। वे पिछले साल के बकाया 4% बोनस की भी मांग कर रहे हैं।

दूसरी ओर, एक साल बीत जाने के बाद भी डुवर्स और तराई के चाय बागानों में कोई ट्रेड यूनियन बोनस एग्रीमेट की मांग नहीं कर रहा है। कुल बोनस 500-800 करोड़ रूपये का होता है। इसमें 4% की कमी भी 22-32 करोड़ रूपये होता है। क्यों डुवर्स तराई के नेतागण First Flush Agreement की मांग नहीं कर रहे हैं? यह एक गंभीर और बहुत बड़ा सवाल बन कर सामने आया है। चाय मजदूरों में अपने अधिकारों के विषय में एक जागरूकता आई है, उसका सबूत है, उत्तर कन्या चलो अभियान।  नेह।

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