प. बंगाल में बगानियारों के 16% बोनस से उठे रहे आधारभूत सवाल!
पश्चिम बंगाल के चाय बागानों में कार्य करने वाले श्रमिकों को 2024 में अधिकतम 16% बोनस दिया जाएगा। कोलकाता में चाय बागान मालिकों के शीर्ष संगठन और ट्रेड यूनियन के बीच इस मुद्दे पर हुए समझौते की खबर चाय अंचल में आने के बाद ही मजदूरों में इसको लेकर गहरा असंतोष व्याप्त हो गया है। कई चाय बागानों में इसके विरोध में मजदूर आंदोलन करने पर उतर आए हैं।
खबर है कि रायडाक चाय बागान में मजदूरों ने प्रबंधन का घेराव करके इस मामले पर अपना असंतोष व्यक्त किए और 20% से कम बोनस लेने से इंकार किए। वहीं गैंदरापाड़ा में भी महिला मजदूरों ने इसके विरोध में आवाज़ उठाया है। माल के सैली, बड़ादिघी, सोनागाछी आदि बागानों में इसके लिए रोष देखा जा रहा है। खबर है कि नगेसरी बागान के मजदूरों ने आधा बोनस आधा काम के तर्ज पर आधा दिन ही कार्य करने का फैसला किया है। मजदूरों के गहरे असंतोष को देखते हुए कई बागान अस्थायी रूप से बंद हो सकते हैं। राजनैतिक और सामाजिक व्यवस्था गरमा सकते हैं। बोनस के मुद्दों को लेकर चाय बागान बंद करना और फिर कुछ दिनों के बाद खोलना मजदूरों को दबाने, धमकाने और डराने की एक रणनीति बन गई है। कमजोर सरकार की बेरूखीपन के कारण चाय बागान प्रबंधनों का यह एक नियमित खेल बन गया है।
चाय अंचल में दुर्गापूजा के पहले मिलने वाला बोनस चाय मजदूरों की जिंदगी में महत्वपूर्ण स्थान रखता है। गौर करने लायक बात यह है कि कि फिलहाल त्रिपक्षीय वेतन समझौते के तहत मजदूरों को महज 250 रूपये दैनिक मिलता है। यह राज्य सरकार के द्वारा प्रति छह माह में असंगठित क्षेत्र के लिए घोषित किए जाने वाले न्यूनतम वेतन से बहुत कम है। हर महीने पीएफ काट कर पूरा काम करने वाले मजदूर के हाथों में महज 5500 रूपये ही आता है। जबकि इतनी कम मजदूरी में कार्य करने वाले मजदूरों के लिए बोनस के रूप में मिलने वाले 20-25 हजार रूपये एक अच्छी खासी रकम होती है और वे साल भर इसके लिए इंतजार करते हैं। इन रूपये से ही उनके कई महत्वपूर्ण सामाजिक और आर्थिक कार्य सम्पन्न होते हैं।
चाय मजदूर 2012 से ही न्यूनतम वेतन अधिनियम 1948 के तहत वेतन के लिए आंदोलनरत है। उनकी मांग पर विचार करने के लिए राज्य सरकार ने साल 2015 के नवंबर महीने में 29 सदस्यों की न्यूनतम वेतन सलाहकार समिति बनाई थी। जिसका कार्यकाल एक वर्ष का था। समिति में सरकारी अधिकारियों, चाय बागान मालिकों के विभिन्न संघ और चाय मजदूरों के विभिन्न ट्रेड यूनियनों के प्रतिनिधियों को शामिल किया गया था। यदि यह समिति सही ढंग से कार्य करती तो 2016 के अंत तक मजदूरों को न्यूनतम वेतन मिलना शुरू हो जाता। लेकिन 9 वर्ष बीत जाने के बावजूद यह समिति न्यूनतम वेतन पर अंतिम निर्णय लेने में असफल रही और न ही राज्य सरकार ने इस समिति के असफल रहने पर अपने दम पर कोई निर्णय लिया। चाय उद्योग के जानकारों का मानना है कि यह राज्य सरकार के विरूद्ध मजदूरों में बढ़ते असंतोष और रोष को लगाम लगाने के लिए बनाई गई समिति थी। आंदोलन को टालने और मजदूरों को भ्रम में रखने के लिए इस समिति का इस्तेमाल किया गया। इस समिति का नाम लेते हुए राज्य सरकार न्यूनतम वेतन मुद्दों को टालती रही है और न्यूनतम वेतन नहीं मिलने का सारा ठीकरा इस समिति पर डालती रही।
यह सलाहकार समिति में जितने भी प्रतिनिधि शामिल थे, उन्होंने कभी भी गंभीरता से अपने काम को अंजाम नहीं दिया। समिति की बैठक कभी छह महीने के अंतराल के बाद तो कभी एक वर्ष बीत जाने पर बुलाए जाते थे और उसमें दिखावटी खानापूर्ति वाली कार्यवाही की जातीं रहीं। जिसके कारण यह पिछले 9 वर्षों में भी अपना काम नहीं कर पायी और आज भी चाय मजदूर कानूनी और संवैधानिक रूप से तय किए जाने वाले न्यूनतम वेतन से वंचित हैं। राज्य सरकार समिति के नाम पर न्यूनतम वेतन पर टालमटोल का खेल खेलती रही है और मजदूरों को बहलाने के लिए बीच-बीच में अंतरवर्तीकालीन वेतन वृद्धि के नाम पर 10-20 रूपये बढ़ा कर मजदूरों को वास्तविक न्यूनतम वेतन से वंचित करती रही। वास्तव में न्यूनतम वेतन सलाहकार समिति कानून और इसके लिए तय मानदंड के अनुसार कार्य नहीं की। बल्कि यह मजदूरों को न्यूनतम वेतन से वंचित करने का एक लुभाव और फुसलाव देने वाली समिति के रूप में बदनाम होती रही। मजदूरों के आंदोलन को टालने और उन्हें भरमाने वाली रणनीति का यह एक हिस्सा बन कर रह गयी थी। मजदूरों को न्यूनतम देने के बदले उन्हें वंचित करने के कार्य करने में यह समिति पूरी तरह सफल रही।
केरल में चाय मजदूरों के वेतन वृद्धि पर जब वहाँ के मजदूरों ने आंदोलन किया तो वहाँ की सरकार ने भी एक चाय मजदूर वेतन सलाहकार समिति बनाई थी, जिसे सिर्फ चार सप्ताह में अपना सुझाव देना था। जैसे ही उस समिति की समय सीमा खत्म हुई, सरकार ने अपनी ओर से कदम उठा कर मजदूरों के लिए न्यूनतम वेतन तय करके उसे नोटिफाई कर दिया था। इस तरह केरल में वेतन मुद्दे सिर्फ एक महीने में सुलझा दिया गया था। लेकिन पश्चिम बंगाल सरकार इस मामले पर एक निकम्मी और फिसड्डी सरकार के रूप में अपनी पहचान कायम की है।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 43 में निम्नांकित प्रावधान किए गए हैं “श्रमिकों के लिए जीविका मजदूरी आदि ——–राज्य उपयुक्त कानून या आर्थिक संगठन या किसी अन्य तरीके से सभी श्रमिकों, कृषि, औद्योगिक या अन्य, को काम, जीविका मजदूरी, सभ्य जीवन स्तर और अवकाश का पूर्ण आनंद सुनिश्चित करने वाली कार्य स्थितियां तथा सामाजिक और सांस्कृतिक अवसर सुनिश्चित करने का प्रयास करेगा और विशेष रूप से राज्य ग्रामीण क्षेत्रों में व्यक्तिगत या सहकारी आधार पर कुटीर उद्योगों को बढ़ावा देने का प्रयास करेगा।”
मजदूरों के कल्याण के लिए उन्हें उनके कार्य के अनुरूप सामुचित वेतन देने के लिए परिस्थिति बनाने और उसे लागू करवाने का अधिकार संविधान ने सरकार को दिया है। लेकिन पश्चिम बंगाल सरकार ने चाय मजदूरों के प्रति कभी भी अपना कर्तव्य का निर्वहन नहीं किया और उसका रूख मजदूर विरोधी रही। चाहे वह न्यूनतम वेतन, फ्रिंज बेनेफिट्स, पीएफ, ग्रेज्युएटी, भूमि अधिकार, शिक्षा, स्वास्थ्य, प्रशिक्षण, रोजगार आदि क्षेत्र की रही हो। हर जगह राज्य सरकार का रवैया मजदूर विरोधी रहा है। तज्जुब की बात यह रही है कि इसका परोक्ष समर्थन मजदूरों के रहनुमा बने ट्रेड यूनियन के नेतागण करते रहे हैं। आज भी मजदूरों को ये तमाम अधिकार नियमों, विनियमों के अनुसार हासिल नहीं हैं।
सरकार द्वारा गठित न्यूनतम वेतन सलाहकार समिति में पिछले 9 वर्ष में अलग-अलग समय में चाय अंचल के न्यूनतम 9 ट्रेड यूनियन के नेतागण शामिल हैं, लेकिन कमोबेश उनकी भूमिका समिति में रहकर सरकार की नीति को समर्थन देने की रही है। जबकि कानून की धाराओं के अनुसार उनकी भूमिका मजदूरों के पक्ष में आवाज़ उठाने वालों की होनी चाहिए थी। एक साल के लिए गठित समिति जब 9 सालों में भी मजदूरों के पक्ष में कोई निर्णय नहीं ले पायी, तब भी ये ट्रेड यूनियन के नेतागण सरकारी समिति में चिपके रहे और किसी भी प्रकार का विरोध करते हुए समिति से बाहर नहीं आए। इस दौरान वे जमीनी स्तर पर कोई आंदोलन भी नहीं किए और न ही मजदूरों को इसके बारे जानकारी देने के लिए कोई साहित्य, हैंडबिल बनाया, न ही कोई बड़ा सम्मेलन या रैली किया। यह आश्चर्यजनक स्थिति है कि जिन नेताओं को मजदूरों के पक्ष में मुखर होकर कार्य करना था, वे सरकारी समिति में बैठकर न्यूनतम वेतन से मजदूरों को वंचित करने के खेल में शामिल हो गए। कुल मिला कर पश्चिम बंगाल की टीएमसी सरकार मजदूर विरोधी रवैया अपनाती रही है और इसका विरोध करने के बजाय चाय मजदूरों से चंदा लेने वाले और उनके वोट के लिए उनसे हाथ पाँव जोड़ने वाले नेताओं ने सरकारी रणनीति को अपने मुँह बंद करके समर्थन देते रहे।
न्यूनतम वेतन से वंचित मजदूरों की एकमात्र आशा बोनस होती है। लेकिन जब इस पर भी उनके अनुकूल निर्णय नहीं आया तो वे रोष से भर गए और कई संकेत कह रहे हैं कि आनेवाले समय में वे कार्य छोड़ कर आंदोलन का रास्ता अपना सकते हैं। अपने साथ हो रहे भेदभाव, अन्याय और वंचना को लेकर वे बहुत असंतोष की भावना पाल कर रखे हैं और जो टाइम बम की तरह कभी भी प्रचंड विस्फोट के साथ फट सकता है। ऐसी किसी भी संभावित परिस्थिति के लिए यहाँ के ट्रेड यूनियन के अक्षम, बेईमान नेतागण और सरकार ही जिम्मेदार होंगे। क्योंकि यह सरकार की नीतिगत कुकर्मों का परिणाम है।
पिछले एक साल से न्यूनतम वेतन का एक मसला कलकत्ता हाईकोर्ट में पड़ा हुआ है और कोर्ट ने सरकार को अगस्त 2023 को छह महीने के अंदर न्यूनतम वेतन देने का आदेश दिया था। लेकिन सरकार ने इस पर कोई कदम नहीं उठाया। फिर कोर्ट ने इसके बाद फिर दो मौका सरकार को दिया। लेकिन सरकार ने फिर भी न्यूनतम वेतन देने के लिए कोई कदम नहीं उठाया। सरकार का मंशा मजदूरों को न्यूनतम वेतन देने की नहीं लगती है। मजदूरों के इतने महत्वपूर्ण मसले पर भी ट्रेड यूनियन के नेताओं का रवैया मजदूर अनुकूल नहीं रहा। चाय अंचल के किसी भी बड़े ट्रेड यूनियन के नेताओं ने मजदूरों के पक्ष में तथ्य रखने, Caveat दायर करने या इसमें एक पक्ष बनने के लिए कोई कदम नहीं उठाया। एक नया ट्रेड यूनियन पश्चिम बंग खेत मजूर समिति ने कोर्ट में जाकर मजदूरों की बातें रखीं। तब जाकर कोर्ट ने सरकार को न्यूनतम वेतन के बारे एक हलफ़नामा दाखिल करने का आदेश दिया। यदि चाहते तो बड़े ट्रेड यूनियन के नेतागण कोर्ट में जाकर न्यूनतम वेतन के राह में पड़ने वाले रोड़ों के बारे कोर्ट को बता सकते थे। वे बता सकते थे कि वे जिस समिति में शामिल हैं, वह समिति का कार्यकाल समाप्त हो गया है और वह अपना कार्य करने में असफल सिद्ध हुई है। लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। ऐसा लग रहा है कि कोर्ट में न्यूनतम वेतन के मामले पर चल रहे तमाम मामलों से इनका कोई लेना देना नहीं है।
इधर जब कोर्ट के आदेश को लागू करके मजदूरों को न्यूनतम वेतन देने की नौबत आ गयी, तो सरकार ने इससे बचने के लिए फिर से एक नयी समिति अगस्त 2024 में बना दी और फिर से सरकार को सहयोग देने वाले ट्रेड यूनियन के नेताओं को ही नामित कर दी। आश्चर्य की बात यह है कि ऐसे तमाम नेतागण फिर से अक्षम समिति में सलाहकार के रूप में शामिल हो गए हैं। जबकि उन्हें कोर्ट के आदेश को लागू करवाने के लिए एकजुट होकर कार्य करना चाहिए था।
इस घटनाक्रम से यह स्पष्ट हो गया कि नेताओं का चाय मजदूरों के प्रति समर्पण टिकाऊ और निर्विवाद, असंदिग्ध नहीं है या फिर उनमें, नेतृत्व क्षमता की कमी है या श्रम और संवैधानिक कानूनी संबंधी जानकारी का उनमें अभाव है या मजदूरों के आर्थिक स्वार्थ पर सामूहिक विचार विमर्श और निर्णय की क्षमता की उनमें भारी कमी है। यह एक बड़ा सवाल बन कर सामने आया है कि क्या नैतिक रूप से उन्हें ट्रेड यूनियन का नेतृव करने का अधिकार भी है?
कितने आश्चर्य की बात है कि 10 साल से न्यूनतम वेतन पर सरकार और उनसे जुड़ी हुई अन्य संवैधानिक संस्थाएँ निष्क्रिय हैं और मजदूर न्यूनतम वेतन, फ्रिंज बेनेफिट, महंगाई भत्ता, पीएफ, ग्रेज्युएटी से वंचित हैं या उसके मुकम्मल प्राप्त के लिए दर-दर भटक रहे हैं। पीएफ की राशि की प्राप्ति के लिए दलाल चक्र के फेरे में पड़े बिना मजदूरों को रिहाई नहीं मिलती है। इन बातों पर कोर्ट का ध्यान आकर्षित करना जरूरी था, लेकिन किसी नेता ने इसकी परवाह नहीं किया। पीबीएमएस या पश्चिम बंग खेत मजूर समिति को छोड़ कर किसी भी ट्रेड यूनियन के नेतागण भूल कर भी कोर्ट नहीं गए। लेकिन जैसे ही बोनस के वार्तालाप के लिए कोलकाता से बुलावा आया , तमाम नेतागण दौड़े चले गए और फिर वहाँ बैठ कर 16% पर निर्णय भी हो गया। अभी गेंदरापाड़ा के महिला मजदूर सवाल कर रहे हैं कि “नेताओं ने कैसे उनसे पूछे बिना इतने कम दर पर बोनस का फैसला कर लिया? ये नेतागण हमारे सामने आएँ और उन्हें बताएँ। क्योंकि साल भर कड़ी धूप, ठंड और बरसात में तो वे काम करते हैं। नेताओं ने क्यों उन्हें बताए बोनस समझौता कर लिया।” क्या ये नेतागणों को सिर्फ बोनस पाने से मतलब है ? बोनस के लिए ये लालायित हैं, लेकिन न्यूनतम वेतन के लिए नहीं!! आखिर ये किस चीज की लड़ाई को मुख्य आंदोलन कहते हैं?
फ्रिंज बेनेफिट के नाम पर बागान अन्य आईटम के साथ 20% बोनस भी हर महीने काट कर रखता है। स्थायी मजदूरों को भले फ्रिंज बेनेफिट कई बागानों को छोड़ कर पूरा नहीं मिलता है, जिस पर नेता और श्रम विभाग आँख बंद करके रहता है। लेकिन बीघा श्रमिकों को तो फ्रिंज बेनेफिट्स नहीं मिलता है, फिर उन्हें सिर्फ 250 रूपये क्यों मिलता है? बीरपाड़ा के एक मजदूर का सवाल है कि मजदूरों के रहनुमा बने तमाम लोगों और ऑथोरिटी के पास इसका क्या जवाब है ? चाय बागानों के हालत से मजदूरी और फ्रिंज बेनेफिट्स का क्या संबंध है? मजदूरी और फ्रिंज बेनेफिट्स कार्य के बदले मिलने वाले संवैधानिक रूप से स्वीकृत शारीरिक श्रम के बदले मिलने वाली राशि है। इस राशि से बागान चले या न चले, मजदूरों को वंचित नहीं किया जा सकता है। इससे उसे वंचित करने का सीधा अर्थ कि उसके शारीरिक श्रम करवा कर उन्हें कम पैसा देकर बेगारी कराना।
चाय बागान एक व्यावसायिक उद्यम है, उसके लाभ और हानि से मजदूरी दर का कोई संबंध नहीं है। पूँजीपतियों को जब बम्पर मुनाफा होता है, तो वे उसे मजदूरों के साथ नहीं बाँटते, फिर हानि होने पर वे मजदूरों को इसकी सज़ा कैसे दे सकते हैं? भारतीय कानून के अनुसार तो उन्हें Company Social Responsibility के रकम को स्थानीय समाज के उत्थान में लगाना चाहिए, लेकिन वह भी चाय अंचल में नहीं होता है। इस पर भी कभी किसी नेता कोई सवाल नहीं उठाते, न ही सरकार इस पर कभी ध्यान देती? सवाल यह उठता है कि मजदूरों का तथाकथित नेतृत्व चाय बागान मालिकों के प्रति समर्पित हैं या मजदूरों के प्रति?
जलवायु परिवर्तन का चाय उद्योग पर सीधा असर पड़ा है। लेकिन इसके लिए मजदूरों पर दोष नहीं मढ़ा जा सकता है। असम के चाय बागानों में मजदूरों को 11.67% Ex Gratia राशि मिला कर कुल 20% राशि बोनस के नाम पर दी जा रही है। सवाल है कि पश्चिम बंगाल के मजदूरों को Ex Gratia राशि मिला कर 20% राशि का भुगतान क्यों नहीं किया जा सकता ?
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