मूल उद्देश्यों से भटके धर्म
यह वास्तविक है कि मानव जीवन की तरह ही धर्म का भी जन्म और मरण होता है। आज के युग में दिमाग, समाज, राजनीति और आर्थिक बाज़ारों में व्याप्त तमाम धर्म भी कालांतर में काल के गाल में समा जाएँगे, भले धर्म के ठेकेदार इसके वर्चस्व को आबाद रखने के लिए पानी की तरह पैसा बहाएँ, वैज्ञानिक दृष्टिकोण से हीन समाजों, अनपढ़ों, आत्मविश्वासहीन, कूपमंडुप, समाजों को अंधविश्वासी बनाने के लिए लाखों षड़यंत्र करें, लेकिन अंत में इन धर्मों को मर ही जाना है। इतिहास गवाह है कि कोई भी धर्म तीन चार हजार वर्ष से अधिक समय तक जीवित नहीं रहता है। भले कोई यह कहे कि उनका धर्म पिछले 5 हजार वर्ष से जीवित है। लेकिन ऐसा दावों का कोई वास्तविक आधार नहीं होता है। तथाकथित धर्मों का आधार सांस्कृतिक दर्शनों पर आधारित होते हैं और संस्कृति और सामाजिक आचार-व्यवहार हर पीढ़ी के बाद धीरे-धीरे बदल जाते हैं। जो पहले अग्नि की पूजा करते थे, वे आज मू्तियों की पूजा करते हैं। जो पहले निर्गुण ईश्वर की पूजा करते थे, आज बड़े-बड़े अट्टालिकाओं से पूजा घर बनवाते हैं और वहाँ सगुण ईश्वर की पूजा करते हैं। सोच. व्यवहार और दर्शन हमेशा बदलते हैं और उसके साथ धर्म के स्वरूप और दर्शन भी बदल जाते हैं। मूल उद्देश्यों से भटके धर्म में कब कहाँ, कैसा परिवर्तन होता है, यह उसके तत्कालिक दर्शन पर आधारित होता है।
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धर्म क्या है ? यह सवाल सदियों से पूछा जाता रहा है?
धर्म का असली रूप क्या है ? धर्म का लक्ष्य क्या है, इसे बताने के लिए धर्म के ठेकेदारों ने बहुत सारे पोथी रच लिए हैं। उन पोथियों के एक-एक शब्द और अक्षर की व्याख्या करने के लिए अलग से और भी पोथियाँ रच डाले हैं। इसके अलावा, सतर्कहीन दिमागों में उसे ठूसने का भरपूर तामझाम भी विकसित करके उसके तरीकों को इकट्ठे कर लिए हैं। इन धर्मों का मुख्य लक्ष्य अनुयायियों से आर्थिक लाभ लेना और उसे इकट्ठा करना है। शायद ही धर्म के किसी कर्मकांड में सीधे या परोक्ष रूप से अर्थ की कोई भूमिका न हो। पूरे संसार मे धर्म से बड़ा न कोई व्यापार है और न कोई उद्योग। खरबों-खरब रूपयों वाला सबसे अधिक पल्लवित होने वाला धंधा है धर्म। इसका धंधा कभी पड़ता नहीं मंदा।
धर्म के नाम पर बिना परिश्रम किए ही आय का उपार्जन करने वाले एक ऐसे वर्ग का उदय हुआ है, जो इसे बनाए रखने के लिए धार्मिक अनुयायियों के दिमाग में धर्म को जीवित रखने के लिए मृत्यु, पाप और नरक का जाल फैलाते हैं। पूरे संसार में धर्म ही परजीवियों के विराट जनसंख्या को शोषण का बाजार उपलब्ध कराता है। जबकि न तो किसी धर्म में मृत्यु के पार देखने की ताकत है और न ही किसी ईश्वर को देखने या दिखाने की ताकत है। धर्म के धंधे को अबाध गति से फैलाने के लिए अंधविश्वास को एक रहस्य के रूप में प्रस्तुत किया जाता है और कहा जाता है कि विश्वास का रहस्य यही है कि धार्मिक दिमाग बंद करके धर्म पर विश्वास करे।
धर्म के व्यापारियों ने ईश्वर की अगमता, सुगमता और व्यापमता के लाखों बहाने गढ़ लिए हैं और काल्पनिक बातों से भक्तों को भरमाने में भरपूर सफल भी रहे हैं। रोज धर्म के नगाड़े पीटे जाते हैं। लेकिन कहीं किसी इंसान को ये धर्म न तो सुधारने में ये सफल रहे हैं न ही किसी आलौकिक शक्ति से लोगों का साक्षात्कार कराने में सफल। यहाँ जो कुछ भी है सब भरमाने का व्यापार है, शोषण करने और घर बैठे लाभ कमाने का बाजार है।
मानवीय सभ्यता 300 धर्मों को ढो रहा है। लेकिन ये 300 धर्म 03 रिजल्ट भी देने में कामयाब नहीं हैं। क्योंकि हर ढोल की तरह इनके ढोल में पोल ही पोल है। दुनिया का कोई भी धर्म कभी ताल ठोक कर अपने परम झूठ को सत्य में तब्दिल करने की कोई घोषणा न तो किया है और न ही करेगा। क्योंकि ये झूठ-फरेब और मक्कारी के विश्व के सबसे बड़े षड़यंत्र हैं। जिस दिन 300 धर्मों में से कोई अपने झूठ को सच में तब्दिल करने की घोषणा करेगा, उसी दिन वह नंगा हो जाएगा, उसकी वजूद हिलने लगेगा और उसकी मृत्यु तय हो जाएगी।”
आज धर्म मनुष्यों को खंड-खंड बाँटने में लगा हुआ है। यह धर्म के नाम पर मनुष्यों को संगठनों और संस्थाओं को नाम पर ही नहीं बाँटा है, बल्कि यह सामाजिक, राजनैतिक और देशों में भी बाँट कर उन्हें एक दूसरे से अलगाव की भावना रखने के लिए भी विभेद बना दिया है। पूरी दुनिया में धर्म के नाम पर विकसित हुए अलग-अलग भावनाएँ, सिद्धांत और दर्शन ने मानवों के बीच विभेद की बड़ी-बड़ी दीवारें बना दिया है। कई भयानक संघर्ष और युद्ध भी धर्म की विभिन्नता भरे दर्शन और स्वार्थ के लिए लड़ी गई है। अपने मूल उद्देश्यों से भटके धर्म का मुख्य कार्य ही मनुष्यता को बाँट कर उसे खंडित रूप में जीवन देना रहा गया है।
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