राष्ट्रवाद : अवधारणा, प्रकार और ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य
×

राष्ट्रवाद : अवधारणा, प्रकार और ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य

Neh News

राष्ट्रवाद : अवधारणा, प्रकार और ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य

           DR.-OM-Shankar-176x300 राष्ट्रवाद : अवधारणा, प्रकार और ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य      डा. ओम शंकर   
राष्ट्रवाद एक विचारधारा है, जो किसी विशेष राष्ट्र की संस्कृति, पहचान और संप्रभुता को प्राथमिकता देती है। यह राष्ट्रीय एकता और स्वशासन की वकालत करता है, लेकिन कई बार यह कट्टरता, बहिष्कार और संघर्ष को भी जन्म देता है। इतिहास में राष्ट्रवाद ने जहां स्वतंत्रता आंदोलनों को प्रेरित किया, वहीं कई बार आक्रामक विस्तार और विभाजनकारी राजनीति का कारण भी बना।
राष्ट्रवाद के प्रकार
1. नस्लीय राष्ट्रवाद – यह राष्ट्र की पहचान को नस्ल, भाषा या सांस्कृतिक वंश पर आधारित मानता है, जैसे कि नाजी जर्मनी और ज़ायोनिज़्म।
2. नागरिक राष्ट्रवाद – यह नागरिकता, लोकतांत्रिक मूल्यों और राजनीतिक संस्थानों पर आधारित होता है, जैसे कि अमेरिका और फ्रांस।
3. धार्मिक राष्ट्रवाद – यह किसी धर्म को राष्ट्रीय पहचान का केंद्र बनाता है, जैसे हिंदुत्व, इस्लामी राष्ट्रवाद और ईसाई राष्ट्रवाद।
4. विस्तारवादी राष्ट्रवाद – यह आक्रामक और साम्राज्यवादी होता है, जैसे कि फासिस्ट इटली और नाजी जर्मनी।
5. उपनिवेश-विरोधी राष्ट्रवाद – यह औपनिवेशिक शोषण के विरुद्ध संघर्ष से उत्पन्न होता है, जैसे भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन और अफ्रीकी मुक्ति आंदोलन।
6. आर्थिक राष्ट्रवाद – यह वैश्वीकरण के बजाय राष्ट्रीय आर्थिक नीतियों को प्राथमिकता देता है, जैसे “अमेरिका फर्स्ट” और भारत का स्वदेशी आंदोलन।
7. जाति-आधारित राष्ट्रवाद – यह भारत का अद्भुत राष्ट्रवाद है, जो जातिगत वर्चस्व को बनाए रखने की एक बड़ी मुहिम है, जिससे कुलीन वर्गों का निम्न जातियों द्वारा शोषण हमेशा कायम रहे।
विश्व इतिहास में राष्ट्रवाद :
आधुनिक राष्ट्रवाद की जड़ें फ्रांसीसी क्रांति (1789) से जुड़ी हैं, जिसने स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के सिद्धांत को बढ़ावा दिया। जर्मन और इतालवी एकीकरण (19वीं सदी) में राष्ट्रवाद की भूमिका महत्वपूर्ण रही। हालांकि, दोनों विश्व युद्धों की जड़ें भी आक्रामक राष्ट्रवाद में हीं निहित थीं।
शीत युद्ध के दौरान राष्ट्रवाद पूंजीवाद और साम्यवाद की वैचारिक लड़ाई का माध्यम बना। वर्तमान में, अमेरिका, यूरोप और भारत में दक्षिणपंथी राष्ट्रवाद जातीय, धार्मिक और क्षेत्रीय पहचान के आधार पर ध्रुवीकरण को बढ़ावा दे रहा है, जो भविष्य के लिए खतरे की घंटी है।
भारत में राष्ट्रवाद
भारत में राष्ट्रवाद की शुरुआत ब्रिटिश शासन के खिलाफ क्षेत्रीय विद्रोहों के रूप में हुई। 1857 का विद्रोह एक सर्वधर्मीय संघर्ष था, लेकिन बाद में धार्मिक राष्ट्रवाद की राजनीति के चलते यह आंदोलन विभाजनकारी साबित हुआ।
ब्रिटिश सत्ता ने “फूट डालो और राज करो” नीति के तहत धार्मिक राष्ट्रवाद को बढ़ावा दिया। जिसके तहत एक तरफ हिंदू महासभा और आरएसएस का जन्म हुआ तो दूसरी तरफ मुस्लिम लीग का उदय हुआ, जिन्होंने धार्मिक आधार पर राष्ट्रवाद की परिभाषा गढ़ी। “टू नेशन थ्योरी” की नींव हिंदू महासभा, RSS, मुस्लिम लीग और अंग्रेजों द्वारा मिलकर प्रोत्साहित की गई थी, न कि महात्मा गांधी द्वारा, (जैसा कि RSS आज दुष्प्रचारित करता है), ताकि भारत की सत्ता आजादी के बाद आंदोलनकारियों के हाथों में जाने की बजाय, RSS और मुस्लिम लीग जैसे अंग्रेजों के सहयोगियों के हाथ में बनी रहे।
गांधी जी और राष्ट्रवाद
महात्मा गांधी धार्मिक ध्रुवीकरण के विरोधी थे और उन्होंने सांप्रदायिक राष्ट्रवाद को रोकने के लिए अंतिम दम तक प्रयास किए। उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम को बहुजन-समाज के अधिकारों और सामाजिक समरसता से जोड़ा। इसके विपरीत, सावरकर और आरएसएस का राष्ट्रवाद हिंदू उच्च जातीय वर्चस्व को स्थापित करने की ओर उन्मुख था।
स्वतंत्रता संग्राम में गांधी जी (वैश्य) की अग्रणी भूमिका ने हिंदू समाज में ब्राह्मण वर्ग की श्रेष्ठता को गंभीर चुनौती पेश की, जिसकी वजह से ब्रह्मण वर्ग हिन्दुओं में अपने वर्चस्व कायम रहने को लेकर डर गए थे, क्योंकि लोग गांधी जी (वैश्य) के दीवाने हो गए थे। इसलिए गांधी जी की हत्या न सिर्फ सांप्रदायिक राष्ट्रवाद का परिणाम था, बल्कि ब्राह्मण वर्ग (RSS) द्वारा वैश्य गांधी जी को मिटाकर आजादी के बाद राजनीतिक-धार्मिक सत्ता फिर से हथियाने और हिंदू धर्म के ऊपर पुनः ब्राह्मण वर्चस्व स्थापित करने के षडयंत्र का भी हिस्सा था।
इस बात कि पुष्टि इससे भी होती है कि गांधी जी की हत्या में शामिल गोडसे और आप्टे जैसे लोग ब्राह्मण वर्ग के थे। वैश्य बनाम ब्राह्मण संघर्ष आज भी मोदी बनाम RSS के रूप में जारी है, जहां संघ “ब्राह्मणवादी राष्ट्रवाद” का प्रतीक है और मोदी जी लोकप्रिय वैश्य वर्ग के प्रतिनिधि हैं।
स्वतंत्रता के बाद राष्ट्रवाद
नेहरू, पटेल और अंबेडकर ने धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक राष्ट्रवाद को मजबूत किया, जबकि आरएसएस हिंदू राष्ट्र की कट्टरवादी हिंदुत्व की अवधारणा को आगे बढ़ाने में लगा रहा। समय-समय पर कांग्रेस और अन्य दलों ने भी राजनीतिक लाभ के लिए धार्मिक और जातिगत राष्ट्रवाद का सहारा लिया।
1980 के दशक में बीजेपी का उदय हुआ, जिसने आरएसएस के हिंदू राष्ट्रवाद को अपनाया और धार्मिक ध्रुवीकरण को मंडल आंदोलन के बाद मजबूत हो रहे पिछड़े वर्ग को कुचलने के लिए चुनावी हथियार बनाया, जिसमें आज वो पूरी तरह से सफल दिख रहे हैं।

AMAZON.IN
Minimum 50% off Home, kitchen & more
Deals on accessories for your top smartphone brands
Purchase छूट के साथ खरीदें Click Here for Prices

(राष्ट्रवाद : अवधारणा, प्रकार और ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य)
भाजपा-आरएसएस के क्षुद्म राष्ट्रवाद का एक विश्लेषण
बीजेपी-आरएसएस के फर्जी राष्ट्रवाद की मूल आत्मा
1. सांप्रदायिक ध्रुवीकरण – हिंदू-मुस्लिम विवादों को बढ़ावा देना।
2. इतिहास का विकृतिकरण – ऐतिहासिक तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर नफरतकारी हिंदुत्व नैरेटिव के अनुरूप बनाना।
3. राष्ट्रवाद के नाम पर असहमति का दमन – सरकार की आलोचना करनेवालों को अर्बन नक्सल, “राष्ट्र-विरोधी” ठहराकर उनके आवाज़ों को दबाना।
4. जातिगत राष्ट्रवाद – ऊँची जातियों को rss के माध्यम से संगठित करना, उनके विकास की नीतियों को प्राथमिकता देना और दलित-पिछड़ों को विभाजित करके उनसे वोट लेना और जीतने के बाद उनसे उनके संवैधानिक और मौलिक अधिकार छीनना तथा उनके घरों को बुलडोजर से कुचलना।
5. संस्थानों पर नियंत्रण – न्यायपालिका, मीडिया, चुनाव आयोग और सरकारी तंत्रों पर जांच एजेंसियों का दुरुपयोग करके उनपर संपूर्ण नियंत्रण करना।
6. अर्थिक राष्ट्रवाद का दिखावा – कुछ भ्रष्टाचारी पूंजीपतियों के हाथों सभी सरकारी संस्थाओं को बेचकर उनको आर्थिक लाभ पहुँचाना, और आम जनता को उन्मादी धार्मिक राष्ट्रवाद में फंसाए रखना और उनको भ्रमित करना।
भाजपा-आरएसएस का विरोधाभाषी राष्ट्रवाद:
1. स्वतंत्रता संग्राम में भागीदारी नहीं – आरएसएस स्वतंत्रता आंदोलन से हमेशा दूर रहे और अंग्रेजों के करीब।
2. राष्ट्रीय ध्वज का विरोध – आरएसएस ने तिरंगे को कभी अपना राष्ट्रध्वज नहीं मानते, आज भी वो भगवा को हीं अपना राष्ट्रध्वज मानते और उसे हीं रोज पूजते हैं।
3. संविधान का विरोध – मनुस्मृति को संविधान से श्रेष्ठ मानते और इसे लागू करने की दिशा में निरंतर प्रयत्नशील रहते हैं।
4. लोकतंत्र पर प्रहार – बीजेपी- आरएसएस की कट्टरवादी विचारधारा से असहमति रखने वालों को राष्ट्र-विरोधी घोषित कर उनको UAPA की फर्जी धाराओं में मुकदमे करवाकर जेल में डाल देते।
भारत में समावेशी राष्ट्रवाद की आवश्यकता:
भारत का राष्ट्रवाद समावेशी और बहुलतावादी होना चाहिए, जो सभी जातियों, धर्मों और वर्गों को समानता प्रदान करे। एक सच्चा राष्ट्रवादी दृष्टिकोण वह होगा, जो आर्थिक विकास, वैज्ञानिक सोच और सामाजिक समरसता को प्राथमिकता दे, न कि धार्मिक कट्टरता और जातीय वर्चस्व को।
अंत में मैं कहूंगा कि राष्ट्रवाद एक सशक्त विचार है, लेकिन जब इसका उपयोग ध्रुवीकरण, दमन और सत्ता हथियाने के लिए किया जाता है, तो यह लोकतंत्र और सामाजिक न्याय के लिए खतरा बन जाता है। भारत को एक संवैधानिक, लोकतांत्रिक और बहुसांस्कृतिक राष्ट्रवाद को बढ़ावा देने की जरूरत है, जो हर नागरिक के अधिकारों की रक्षा करे और सामाजिक समरसता को कायम रखे। (राष्ट्रवाद : अवधारणा, प्रकार और ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य) साभार – फेसबुक 26 फरवरी 2025

Share this content:

Post Comment

You May Have Missed

error: Content is protected !!