वजूद बचाने की जद्दोजहद में चाय मजदूर
नेह अर्जुन इंदवार
छह महीने पहले अलिपुरद्वार जिले के मधु बागान नामक चाय बागान में धनी उराँव नामक एक शख्स की भूख से मृत्यु हो गई तो सरकार ने तुरंत इसे किसी अन्य कारणों से हुई मौत घोषित कर दिया और उसकी बीमार पत्नी को सरकारी अस्पताल में भर्ती करवा दिया। सरकार की जिम्मेदारी वहीं समाप्त हो गई।
दार्जिलिंग केन्द्र में लोकसभा चुनाव होने के ठीक एक सप्ताह बाद ही गंगाराम नामक चाय बागान के मजदूर वहाँ के फुटबॉल मैदान में इकट्ठे हुए और सभी ने इस बात पर रोष और क्षुब्धता का प्रदर्शन किया कि चाय बागान मालिक ने बागान के मजदूरों के आवासीय, कानूनी और ऐतिहासिक अधिकारों की परवाह न करते हुए बागान के पूरे 2700 एकड़ जमीन को एक कंपनी के हाथों बेच दिया है और नई कंपनी अब वहाँ चाय के पौधों को उखाड़ कर ऊँची-ऊँची बिल्डिंग खड़ी करने का निर्णय किया है।
एनसीएलटी में दायर उनके चाय बागान का मजदूर यूनियन का एक अपील खारिज हो गया था। मजदूरों को अपने सौ साल से बचे हुए घर-परिवार के विस्थापन का डर हो गया है और वे अपने परिवार के भविष्य को लेकर बहुत चिंचित हो गए हैं। गंगाराम चाय बागान के बगल में ही हँसखोआ चाय बागान में चाय के पौधे लगे हुए विशाल क्षेत्र को उखाड़ कर बड़ी-बड़ी बिल्डिंग खड़ी की गई। वहीं न्यू चमटा चाय बागान में एक विशाल टूरिस्ट सेंटर और होटल बनाने के लिए कई एकड़ चाय के लगे पौधों को उखाड़ा गया। इन दोनों ही जगहों में चाय बागान की जमीन चली गई, लेकिन डेढ़ सौ वर्ष से बसे हुए स्थानीय कई लाख लोगों में से किसी को भी नौकरी नहीं मिली न ही इन जगहों में उनकी कोई पहुँच है। उससे पहले सिलीगुड़ी से सटे चाँदमुनी नामक बागान को वाममोर्चा सरकार के नेताओं ने षड़यंत्र करके बिल्डिरों के हाथों सौंप दिया था, जहाँ पर आज सिलीगुड़ी शहर का सबसे पॉश कॉलोनी खड़ी है। चाँदमुनी चाय बागान के एक हजार मजदूरों और उनका परिवार आज कहाँ है, कोई नहीं जानता है। पुलिस, लठैत और कानूनी दाँवपेंच के सामने मजदूरों की कभी एक न चली।
जलपाईगुड़ी जिले के बंद चाय बागान बागराकोट में सड़क बनाने, एलपीजी गैस लाईन बिछाने के लिए बड़ी संख्या में चाय के पौधों को उखाड़ा गया है। वहाँ के मजदूरों को अपनी स्थायी मजदूरी और आवास खोने का डर हो गया है और वे कई सालों से लगातार आंदोलन का रास्ता अपनाए हुए हैं।
अलिपुरद्वार जिले के मदारीहाट ब्लॉक में सड़क पथ से पाँच किलोमीटर के अंदर बसे हुए मुंजनई चाय बागान के स्कूली बच्चों को 7 किलोमीटर दूर के लिए एक स्कूल बस पाने के लिए एक साल से अधिक समय तक आंदोलन करना पड़ा तब जाकर उन्हें स्कूल के लिए एक बस मिला। जबकि हर चाय बागान को स्कूल के लिए बस देना अनिवार्य है।
एक रिपोर्ट के अनुसार 2016-17 में बीमारी और भूख से 100 से अधिक मजदूर डुवार्स के विभिन्न चाय बागानों में मारे गए थे। इसके बाद सरकार ने चाय बागानों में खाद्य साथी नामक मुफ्त राशन की व्यवस्था की और मजदूरों को भूख से बचाने का सरकारी प्रयास शुरू हुआ। लेकिन राशन व्यवस्था भी गहरे जमे भ्रष्टाचार का शिकार हो गया और फिलहाल राशन विभाग को संभाल रहे मंत्रीजी जेल की शोभा बढ़ा रहे हैं। धनी ऊराँव जैसे मजदूर के हाथ की ऊँगलियाँ कार्य नहीं करने के कम्प्यूटर के स्केनर में उनका स्केन नहीं हो पाता था और इस कारण उन्हें मुफ्त राशन भी नहीं मिलता था और भूख और बीमारी से वह दुनिया को अलविदा कह दिया।
न जाने ऐसे कितने धनी ऊराँव होंगे, जिनका किसी को कोई खबर नहीं हुई होगी। 250 रूपये रोज की दिहाड़ी पाने वाला हर चाय मजदूर रोज अपने परिवार के भरण-पोषण के लिए संघर्षरत है और कौन जी रहा है और किनको किस बीमारी निगल रहा है, उसे देखने का किसी को कोई समय नहीं है।
भारत के प्लान्टेशन क्षेत्र के लिए सरकार ने द प्लान्टेशन लेबर एक्ट 1953 बनाया है। इसमें मजदूर कल्याण के लिए दर्जनों प्रावधान बनाए गए हैं। पीएफ एक्ट और ग्रज्युएट एक्ट चाय बागान में लागू है। लेकिन पश्चिम बंगाल के चाय बागानों में पीएफ की लूट के लिए एक विशाल माफिया तंत्र क्रियाशील है, जिसमें कंपनियों के मैनेजर, पीएफ बाबु से लेकर स्थानीय नेता और कई रिपोर्टस के अनुसार पीएफ कार्यालयों में काम करने वाले कुछ भ्रष्ट कर्मचारी भी शामिल हैं।
कुछ साल पहले वामपंथी ट्रेड यूनियन ने सिलीगुड़ी के पीएफ कार्यालय में एक मोर्चा निकाला था और कार्यालय का घेराव किया था, तब आई रिपोर्ट के अनुसार चाय मजदूरों का 150 करोड़ से अधिक रूपये चाय कंपनियों पर बकाया है। वे मजदूरों के दिहाड़ी से पीएफ का पैसा काट लेते हैं, लेकिन वे पीएफ कार्यालय में जमा ही नहीं करते हैं। इस विषय पर पीएफ कार्यालय चुप लगाए हुए रहता है और वे कंपनियों पर कोई दंडात्मक कर्रवाई नहीं करते हैं। फलतः हजारों मजदूर 58 वर्ष में रिटायर होकर भी अपने पीएफ राशि से वंचित रह जाते हैं और वे इसे पाने के लिए दर-दर की ठोकरें खाते हैं। पीएफ माफिया उनसे 50 प्रतिशत की दर दलाली लेकर पीएफ निकालवाने के लिए दबाव डालते हैं और नीचे से ऊपर तक मिले हुए लोग 50 प्रतिशत पैसा लेकर पीएफ निकाल देते हैं। इस विषय पर स्थानीय विधायक, संसद और मंत्रियों तक न जाने कितनी दिखावटी बैठकें की गई लेकिन इन समस्याओं का समाधान कभी नहीं हुआ।
पश्चिम बंगाल में चाय मजदूरों को न्यूनतम वेतन देने का मुद्दा भी पिछले 9 वर्षों में नहीं सुलझा। 2014 में जब कर्नाटक के चाय बागानों में कार्य करने वाले मजदूरों का दैनिक दिहाड़ी 228.35 रूपये, केरल के 216.53 रूपये तमिलनाडु के 209.27 रूपये थे, तब पश्चिम बंगाल के चाय मजदूरों की दिहाड़ी 95 रूपये थी। असंगठित क्षेत्र के अनस्किल्ड मजदूरों के लिए 2014 में पश्चिम बंगाल सरकार ने जनवरी के नोटिफिकेशन के द्वारा 221 रूपये तय किया था। जबकि मनरेगा के लिए मजदूरी दर 150 रूपये था। जाहिर है कि चाय बागान के मजदूरों को सरकार द्वारा तय न्यूनतम वेतन नहीं मिलता है।
न्यूनतम वेतन की मांग पर 2013 में पश्चिम बंगाल के चाय मजदूरों ने लगातर हड़ताल किया था और दो दिन का जेनरल हड़ताल भी बुलाया था। जिसके फलस्वरूप पश्चिम बंगाल की टीएमसी सरकार ने नबंवर 2015 में चाय मजदूरों के न्यूनतम वेतन तय करने के लिए एक सलाहकार समिति बनाई थी। पश्चिम बंगाल में सरकार कैसे कार्य करती है, इसका एक उदाहरण यह सलाहकार समिति है, जो पिछले 9 वर्षौं में 18 बैठक करके भी न्यूनतम वेतन के लिए सलाह देने में नाकाम रही है।
बीच-बीच में सरकार बढ़ती महंगाई के नाम पर 20-30 रूपये की बढ़ोतरी करती रही है। 2023 के जून में सरकार ने उनकी मजदूरी 232 रूपये से बढ़ाकर 250 रूपये कर दिया। लेकिन 18 रूपये की बढ़ोतरी के खिलाफ चाय बागान के मालिक पक्ष के संगठन कोलकाता उच्च न्यायालय में इसे चुनौती दे दी। सुनवाई के दौरान न्यायालय ने इसे बढ़ोतरी को सही माना और सरकार को नवंबर 2023 में निदेश दिया कि सरकार छह महीने में न्यूनतम वेतन तय करे और उसे नोटिफाई करे। लेकिन मई 31 तारीख तक इस बारे कोई नोटिफिकेशन नहीं निकला है। जाहिर है कि चाय मजदूरों के भीषण आर्थिक शोषण पर पश्चिम बंगाल का सरकार का रवैया उदासीन है। इसका एक कारण यह भी है कि चाय बागानों में कार्य करने वाले 95 प्रतिशत मजदूर आदिवासी और गोर्खा जनजाति है। जबकि Bought Leaf Factory यानी बीएलएफ के करखानों में कार्य करने वाले मजदूरों के लिए सरकार ने बिना मांगे ही 2017 में न्यूनतम वेतन के लिए नोटिफिकेशन जारी कर दिया था।
ऐसा लगता है कि सरकार को इन कारखानों में कार्य करने वाले बंग्लाभाषी मजदूरों की चिंता बहुत है। लेकिन गैर बंग्ला भाषी मजदूरों की उन्हें कोई चिंता नहीं है। यही कारण है कि 276 चाय बागानों में कार्य करने वाले मजदूरों को अभी भी न तो न्यूनतम वेतन मिला है और न ही सरकार उसके लिए चिंतित दिखती है। यहाँ तक कि चुनाव के समय तक भी सरकार ने न्यूनतम वेतन मुद्दा को सुलझाने में अपनी उदासीनता का प्रदर्शन किया।
पश्चिम बंगाल में चाय उत्पादन के तीन क्षेत्र है। दार्जिलिंग के पहाड़ी क्षेत्र में कुल 81 चाय बागान हैं। वहीं दार्जिलिंग जिले के तराई क्षेत्र में 45 चाय बागान हैं। बाकी चाय 150 चाय बागान जलपाईगुड़ी और अलिपुरद्वार जिले के डुवार्स क्षेत्र में स्थित हैं। पहाड़ी क्षेत्र के बागानों में मुख्यतः गोर्खा समुदाय के मजदूर कार्य करते हैं, जबकि अन्य क्षेत्र में आदिवासी और अन्य समुदाय के मजदूर कार्य करते हैं। इन्हें सरकार की उदासीनता से आज भी 250 रूपये ही दिहाड़ी मिलती है, जिसमें से 12 प्रति शत रूपये पीएफ के नाम पर काटा जाता है। आज जबकि एक किलोग्राम दाल की कीमत भी 150 रूपये है। इनकी कितनी आर्थिक शोषण होता है इसे कोई भी अनुमान लगा सकता है। इसका असर इन समुदायों के सामाजिक, आर्थिक विकास पर सीधा पड़ता है और चाय बागानों में कार्य करने वाला समुदाय देश के सबसे अधिक शोषित पीड़ित और पिछड़ा समाज बन गया है।
सरकार ने मजदूर कल्याण के लिए दी प्लान्टेशन लेबर एक्ट तो बना दिया। लेकिन पश्चिम बंगाल में शुरू से ही इसको लेकर कोताही बरती गई। हर चाय बागान को अपने मजदूरों के लिए एक अस्पताल बना कर उसमें एमबीबीएस डाक्टर और प्रशिक्षित नर्स रखना अनिवार्य है। लेकिन 2013 में पश्चिम बंगाल सरकार के श्रम विभाग के द्वारा किए गए एक सर्वे के अनुसार 175 चाय बागानों में कोई श्रम कल्याण पदाधिकारी नहीं था। अधिकतर चाय बागानों में क्वालिफाईड डाक्टर और नर्स ही नहीं हैं। कईयों में आरएमपी डाक्टर कार्य करते हैं। 273 चाय बागान में से सिर्फ 231 चाय बागान में ही बच्चों के लिए प्राथमिक स्कूल बनाए गए हैं। बाकी बागानों के बच्चे किसी अन्य जगहों में जाकर पढ़ाई करते हैं।
273 में से 143 बागानों ही स्कूल बस है। 2009-10 में 24 चाय बागानों ने पीएफ (प्रोविडेंट फंड) के मद में कोई पैसा जमा नहीं किया। वहीं 2010-11 में 18 चाय बागान प्रबंधन ने पीएफ राशि जमा नहीं किया। 2012-13 में 41 चाय बागानों ने पीएफ राशि जमा नहीं की। इन डिफॉल्ट के बाद भी आज तक किसी चाय बागान में किसी पदाधिकारी पर कोई दंडात्मक कार्रवाई नहीं की गई है। यहाँ नियमों के अनुसार हर चाय बागान में ट्रेड यूनियन बने हुए हैं, लेकिन उनकी भूमिका हमेशा प्रश्नवाचक रह जाते हैं। यदि समर्पित ट्रेड यूनियन ठीक से कार्य करें तो मजदूरों के साथ हो रहे आर्थिक शोषण को कुछ हद तक कम किया जा सकता है।
सबसे पहले सन् 1835 में दार्जिलिंग के पहाड़ी क्षेत्र में बन्नाकबर्न और लिन्गिया चाय बागान अस्तित्व में आए। फिर क्रमशः चाय बागान बनते गए। 1901 से लेकर 1947 तक 95 चाय बागान स्थापित हुए और इसकी संख्या बढ़ कर कुछ 229 बागान हो गए। 1835 से लेकर 1900 तक कुल 134 बागानों की स्थापना हुई थी और इन बागानों में काम करने के लिए विभिन्न जगहों से मजदूरों को लाया गया था। क्योंकि ये पूरी क्षेत्र ही अत्यंत घने जंगलों से अच्छादित था और यह क्षेत्र मलेरिया के मच्छर के लिए बहुत कुख्यात था। डुवार्स का क्षेत्र 1865 तक भुटान का भूभाग था। यह इंडो भुटान लड़ाई के बाद ब्रिटिश इंडिया के हाथ के हाथ में आया। जंगलों को साफ करके यहाँ चाय के बागान लगाना एक चुनौती भरा कार्य था। जिसे आदिवासी मजदूरों के पूर्वजों ने बहुत साहसी ढंग से अंजाम दिया। जब जंगलों को साफ किया जा रहा था और अंग्रेज प्लान्टर्स एक निश्चित माफ की जमीन को सरकार से लीज लेकर चाय बागान लगा रहे थे, तब बागानों में कार्य करने वाले मजदूरों ने आसपास की परती, नदी नाले की और जंगल की जमीन को अपने लिए विकसित किया और अपने गाँव बसाए।
1947 तक सब कुछ ऐसा ही चलता रहा। लेकिन देश की आजादी के बाद सरकार ने प्लान्टेशन लेबर एक्ट 1951 बनाया, जिसमें आजाद देश के मजदूरों को विभिन्न प्रकार से सुविधा देने की बातें लिखी गई। साथ ही प्रावधान बना दिया गया कि कंपनी को मजदूरों के लिए क्वार्टर्स बना कर देने होंगे।
पश्चिम बंगाल में चाय उद्योग सरकारी जमीन पर विकसित हुई है। 1947 तक जितने भी चाय कंपनी ने सरकार से जमीन लीज पर ली थी, वे अपनी जमीन पर चाय के पौधे लगाने के लिए ही जमीन लीज पर ली थी। उनके पास मजदूरों के क्वार्टर्स बनाने के लिए जमीन नहीं थी, न ही कभी उन्होंने मजदूरों के आवास के लिए कोई जमीन लीज पर ली थी। उनकी समस्या को जानकर सरकार ने बागान के आसपास के आदिवासी जमीन को ही The West Bengal Estate Acquisition Act 1953 के तहत अधिकृत करके चाय बागानों को दे दिया, जिस पर क्वार्टर्स बनाए गए। इधर परिवार के बड़े होने पर जब मजदूरों ने उन क्वार्टर्स में एक दो अतिरिक्त कमरे बनाने लगे तो चाय बागान प्रबंधन उनके खिलाफ कार्रवाई करने लगा। चाय बागान का कहना है कि यह जमीन उनकी लीज की जमीन है और इसका मालिकाना हक उसके पास है। मजदूरों को सिर्फ अपने क्वार्टर्स में रहने का हक है, किसी तरह की उसमें तब्दिली करने का हक नहीं है। इससे मजदूरों में असंतोष फैलने लगा और वे अपने जमीन पर सरकार से भूमि अधिकार मांगने का आंदोलन करने लगे। राजनीति पार्टियाँ भी इस मांग को अपना समर्थन देने लगी। जमीन की इस मांग को सरकार स्वीकारने के मुड में नहीं थी। सरकार की सहानुभूमि मजदूरों के साथ कभी नहीं थी। बल्कि सत्तारूढ पार्टियों का राजनैतिक चंदे का स्रोत बागान मालिक रहे हैं, इसलिए सतारूढ पार्टी और सरकार का समर्थन हमेशा बागान मालिकों को मिलता रहता है। राज्य की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कार्सियाँग के संवाददाता में सम्मेलन में कहा था कि यदि जमीन दे देंगे तो व्यवसाय कैसे होगा?
उनके इस बयान का जबरदस्त विरोध होने लगा। संसद में इस बात को उठाया गया तो संसद की एक समिति दार्जिलिंग के पहाड़ों में आकर अपनी आंखों से मजदूरों की परिस्थिति देखी और उसने मजदूरों के इस अधिकार का समर्थन किया। लेकिन इसी बीच सरकार चाय बागानों की साहुलियत के लिए द टी टूरिज्म एण्ड एलायड बिजनेस एक्टिविटी पॉलिसी 2019 लेकर आई, जिसमें चाय बागानों को 150 एकड़ तक की भूमि में चाय खेती के इतर अन्य बिजनेस शुरू करने की अनुमति दे दी। जिसमें बिजनेस के लिए लेबर क्वार्टर्स को भी स्थानांतरित करने का प्रावधान कर दिया गया था। इसका तीखा विरोध किया गया और मजदूर अपने घर और उसकी जमीन का पट्टा का आंदोलन तेज कर दिया।
इसी बीच सरकार ने दो अन्य कदम उठाया, जिसे मजदूर विरोधी कहा गया। सरकार ने 10 जुलाई 2023 को एक नोटिफिकेशन निकाल कर चाय बागान जमीन के लीज धारक कंपनी को Transferable आधार पर सरकारी जमीन खरीदने की अनुमति दे दे। वहीं दूसरी ओर मजदूरों के लिए सिर्फ 5 डेसीमल जमीन देने की घोषणा की। लेकिन उसके लिए जमीन को Non-Transferable और Heritable प्रकृति का रखा गया। सरकार की इस नीति का विरोध किया जाने लगा। ममता सरकार को ही मजदूर विरोधी तमगा दिया जाने लगा। बागान मालिकों को Transferable जमीन और मजदूरों को Non-Transferable देने की घोषणा मजदूर विरोधी है।
मजदूर अपने घर परिवार की जमीन पर 155 सालों से भी अधिक समय से एक ही जगह पर रहते आए हैं और वे Adverse Possession Rules के तहत उस जमीन पर कब्जा पाने का अधिकार रखते हैं। इसके अलावा पहले वह जमीन आदिवासी गाँवों की जमीन थी, जिसे सरकार ने बिना मुआवजा दिए ही अधिकृत करके बागान मालिकों को दे दिया था। तब मजदूरों में से कोई भी पढ़ा लिखा नहीं था। लेकिन आज वे अपने अधिकारों को अच्छी तरह से जानते है। मजदूरों ने जमीन सर्वे के लिए आने वाले सरकारी कर्मचारियों को विरोध करने लगे और पाँच डेसीमल जमीन लेने से इंकार करने लगे, क्योंकि 80 प्रतिशत परिवारों के पास 15-30 डेसीमल से अधिक की जमीन है, जिन पर वे सब्जी उगाते हैं या गाय-बकरी पाल कर अतिरिक्त आय प्राप्त करते हैं। अधिकतर जमीन पर सुपारी के बगीचे भी लगे हुए है, जो उन्हें आर्थिक रूप से मदद करते हैं।
लेकिन इसी बीच सरकार ने चा सुंदरी नामक योजना ले आई और 394 वर्गफुट का घर मजदूरों के गाँव के बाहर, नदी किनारे या शमशान घाट के पास बनाने लगी और अपनी पार्टी के सहयोग से गरीब, लाचार, अनपढ़ मजदूरों को सौंपने लगी। इस तरह मजदूर जिस जमीन पर कई पीढ़ियों से रहते आए हैं, उनके हाथों से छूटने लगी है। चाय मजदूरों के बच्चों से बने संगठन इन बातों का विरोध करने लगे हैं, लेकिन राजनैतिक पार्टियों को बागान मालिकों से मिलने वाली भारी चंदा के कारण वे इस पर मुखर होकर विरोध करने से कतराने लगे हैं। इसी बीच ऐसे बागान जो किसी तरह की आर्थिक तंगी झेल रहे है, वे अपने लीज की जमीन को भारी मुनाफे में सरकारी नीति की आड़ लेकर बेचने लगी है। एनसीएलटी के द्वारा जारी कागजातों के अनुसार गंगाराम चाय बागान की लीज जमीन को 231 करोड़ में बेची गई है।
सिलीगुड़ी, बागडोगरा आदि बढ़ते शहरों और हवाईअड्डा के कारण यहाँ जमीन की कीमत सोने से अधिक है। सरकारी जमीन को मिट्टी के दर पर बेचने की नीति का आड लेकर सरकारी बाबुओं, नेताओं और पूँजीपतियों की गठजोड़, बंद या रूग्न चाय बागानों को ऐन केन प्रकारेण अपनी मुट्ठी में लेकर उस पर टी टूरिज्म की आड में अलग-अलग व्यवासाय करने के कार्यक्रम पृष्टभूमि में चला रहे हैं। नेतागण पृष्टभूमि में उद्योगपति बन रहे हैं और अपनी पार्टी और सरकारों को इसके लिए औजार के रूप में दुरूपयोग कर रहे हैं।
जो जनता पार्टी और ट्रेड यूनियन को अपनी मुक्तिदाता के रूप में देखती है। उसे इनके गठजोड़ से निराशा ही हाथ लगती है। बाजार व्यवस्था में लाभ कमाने की होड़, जलवायु परिवर्तन से चाय की अलाभप्रद खेती आदि के कारण 150 हेक्टर जमीन पर फैले चाय बागानों की जमीन बेचने या अन्य व्यवसाय में उपयोग करने की नीति से पीढ़ियों से सरकारी और कंपनियों की नीति से गरीब बना कर रखे गए चाय मजदूरों के समक्ष अपनी वजूद बचाए रखने की चुनौती आन पड़ी है। साभार-विश्वरंग संवाद, भोपाल
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