संगठित धर्म और आध्यात्मिकता
नेह अ इंदवार
धार्मिक शिक्षा और धर्म का आध्यात्मिकता से अंतरसंबंध एक बहुत महत्वपूर्ण विषय है और मानवीय सभ्यता के संतुलित विकास में इस पर पूर्णांग रूप से समझ पैदा करके ही कोई समाज या देश आगे बढ़ सकता है। पूरे समाज के चिंतन धारा को धार्मिक सिद्धांतीकरण के रास्ते धकियाना एक खतरनाक खेल है। यह स्वतंत्र चिंतन का प्रमुख बाड़ सिद्ध हो सकता है, जो वैश्विक स्तर पर बौद्धिकता के क्षरण और क्षुद्रता का प्रमुख कारण बन सकता है। आप अपने परिवार के बच्चों को किन रास्तों पर धकेलना या प्रेरित करना चाहेंगे, यह आपके धार्मिकता और आध्यात्मिकता की समझ पर निर्भर करता है।
संगठित धर्मों का “आध्यात्मिकता का अध्येता” होने का दावा बहुत प्राचीन है। लेकिन तर्कवादियों का यह सवाल कि धर्म के साथ आध्यात्मिकता का रिश्ता वास्तविक रूप में कितना प्रतिशत है? अपनी जगह पर हमेशा एक सवाल बन कर चुनौती देता रहा है।
धर्म और आध्यात्मिकता दोनों की आवधारणाएं विलग है। इस पर तार्किकता से भरे साहित्य उपलब्ध हैं। धार्मिक किताबें आध्यात्मिकता के लिए एक विकसित दुनिया प्रदान करने का दावा करता रहा है। उसे वह अपने ऊपर अवलंबित होने की सूचना देता रहा है। लेकिन आध्यात्मिकता संगठित धर्म से स्वतंत्र रूप से अलग मौजूद हो सकता है। दुनिया के अधिकतर प्राचीन और अवार्चीन दार्शनिकों ने आध्यात्मिकता की राह को एक स्वतंत्रता पथ माना है। आध्यात्मिकता के अभ्यास के लिए संगठित धर्म की आवश्यकता नहीं होती है।
संगठित धर्म मूर्त दिखाऊटी कर्मकांडों का एक समुच्च्य होता है। कई रूढ़ प्रार्थनाओं, आराधनाओं, नियम कायदों, ऊँच-नीच वर्ग या समुदाय (पूजारी-गैर पूजारी वर्ग), रूपये पैसों, रूढ धार्मिक प्रतीकों के बाहर संगठित धर्मों का कोई अस्तित्व नहीं होता है।
हर धर्म का अपना एक अदृयमान विलग अर्थात् अलग-अलग विशेषताओं वाला एक विशेष ईश्वर या परम ईश्वर अवश्य होता है। संगठित धर्म के अस्तित्व के लिए यह एक अनिवार्य तत्व होता है। इसी ईश्वर या देवता या परम शक्ति को आध्यात्मिकता का परम स्रोत या बिन्दु माना गया है। ईश्वर धर्म का सिर होता है। बाकी तमाम कार्मकांड उसका शरीर होता है। किसी भी धर्म का अस्तित्व बिना ईश्वर का नहीं होता है।
धर्म का मुख्य कार्य आध्यात्मिकता से इतर होता है। लेकिन धर्म अपने अनुयायियों से हमेशा आध्यात्मिकता के नाम पर अपने से जुड़े रहने का आग्रह करता है। आध्यात्मिकता के लिए जन के मन की आवश्यकता होती है, लेकिन जनसंख्या की कोई आवश्यकता नहीं होती है। लेकिन धर्म को अपने तथाकथित आध्यात्मिकता को बचाए रखने के लिए नहीं, बल्कि अपने कर्मकांडी आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक वर्चस्व के अस्तित्व को बनाए रखने के लिए भारी भीड़ और विशाल जनसंख्या की आवश्यकता होती है।
बिना विशाल जनसंख्या के कोई भी संगठित धर्म का स्वतंत्र आर्थिक वर्चस्व स्थापित नहीं हो पाता है। धर्मांतरण या घर वापसी, प्राण प्रतिष्ठा, धार्मिक दंगों के लक्ष्य, रणनीति, कूटनीति और लड़ाईयों को इसके बरक्स समझे जा सकते हैं।
मूर्त और शुद्ध कर्मकांडी धर्मों को बनाए रखने के लिए एक मजबूत ढाँचागत आर्थिक वर्चस्व को स्थायी रूप से बनाए रखना होता है। हर धर्म का अपना एक आर्थिक साम्राज्य होता है। यह आश्चर्चजनक रूप से वैश्विक रूप में एकरूपता लिए सभी जगह हाजिर रहा है। यही आर्थिक व्यवस्था ही धर्म के पूजारी वर्ग (भारत के संबंध में इसे पूजारी वर्ण समुदाय पढ़ा जाए) के अस्तित्व को बनाए रखने का पूँजीवादी सम्पदा है। इसे समझे बिना आप धर्म के पूँजीवादी आर्थिक स्वरूप को पूरी तरह नहीं समझ सकते हैं। इस धार्मिक सम्पदा के बगैर मूर्त कर्मकांडी धर्म का कोई स्वतंत्र और प्रभावशाली अस्तित्व नहीं होता है।
धार्मिक संस्थाओं के प्रतीक पूजा और आराधना स्थलों को प्राचीन काल से ही अत्यंत विशाल और भव्य बनाए रखने की परंपरा को इसकी मानसिकता और मनोवैज्ञानिकता के संदर्भ में देखा जाना चाहिए। विशालता, भव्यता ग्लैमर्स के जादुई शक्ति से हर युग में जनता बहुत प्रभावित रही है। भव्यता के भव्य प्रभाव से तर्कहीन जनता को प्रभावित करने के लिए कल्पित कथा कहानियाँ, उत्सव उमंग वगैरह धार्मिक मार्केटिंग का अनुसांगिक तत्व होते हैं। वैज्ञानिकता से अन्जान तर्कहीन दिमागों में विशेष मार्केटिंग के द्वारा धार्मिक श्रद्धा और भक्ति भरे जाते हैं। इसके लिए हर युग में उपलब्ध मीडिया का प्रयोग राजकीय धन से करने के ऐतिहासिक विवरण विश्व इतिहास में भरे हुए हैं। धार्मिक वर्चस्व पूर्ण अर्थव्यवस्था के विकास और पूँजी के समेकन (Consolidation of capital) के इर्दगिर्द चक्कर काटते कर्मकांडों में कही कोई आध्यात्मिकता नहीं होता है। यह ठीक है कि कई व्यक्ति पारंपरिक धार्मिक संस्थानों के कर्मकांडों में लिप्त होकर भी आध्यात्मिक विश्वासों और प्रथाओं को अपनाते हैं। लेकिन इसका प्रतिशत कितना है? यह सवाल हमेशा प्रसांगिक रहा है।
धार्मिक वर्चस्ववादी अर्थव्यवस्था और इसके दूरगामी प्रभावी ढांचा को मजबूत करने के लिए धार्मिक मार्केटिंग को कई हिस्सों में बाँटा जाता है। सबसे पहले इसके लिए बच्चों और अनपढ़ जनता, विशेष कर घरेलू पारंपारिक तर्कहीन महिलाओं और तर्किता से दूर आम पुरूषों को प्रथम टारगेर वर्ग बनाया जाता है। इसके लिए यदि कर्मकांडी शासकों के हाथों में कानून बनाने की शक्ति होती है तो वह धर्म के कर्मकांडी भाग को प्रोत्साहित करने के लिए कानून बनाता है और बाल शिक्षा के रास्ते मनोवैज्ञानिक प्रभाव डालने के लिए रास्ते अपनाए जाते हैं।
एकांकी शिक्षा वैकाल्पिक मान्यताओं को दिमाग में प्रवेश करने में बाधा उत्पन्न करते हैं और बालकों के मन में वैश्विक विविधतापूर्ण जीवन शैली और दर्शन को समझने में दिमागी उलझाव और बाधा उत्पन्न हो जाती है। यदि लगातार दो तीन पीढ़ियों तक बालकों को शिक्षा के माध्यम से एकांकी दर्शन और जीवन मूल्यों को दिमाग में ठूँसा जाता है तो वहाँ वैकाल्पिक जीवन दर्शन के प्रवेश का हर रास्ता बंद हो जाता है। कई कट्टर ईसाई और कठमूल्लापूर्ण मुस्लिम देशों के शिक्षा पाठ्यक्रमों और उसके प्रभाव पर रिसर्च करके इसे पूर्णांग रूप से समझा जा सकता है। क्यों मुस्लिम देशों में धार्मिक सहजीवन के लिए कोई आदर्श अनुकूल वातावरण नहीं है, इसे बालकों को दी जाने वाली शिक्षा के रास्ते धार्मिकसिद्धांतकारी योजना से समझा जा सकता है।
धार्मिक शिक्षा का आदर्शवादी उद्देश्य, आदर्श रूप से, बच्चों को बेहतर जीवन जीने और उनके समुदायों में सकारात्मक योगदान देने में मदद करना है, लेकिन यह स्वतंत्र और सीमाहीन अनुकूलनशीलता या चिंतन की लचकता को सीमित कर देता है। लंबे समय तक चलने वाले अध्ययनों से पता चलता है कि स्कूलों में साम्यवादी या धार्मिक शिक्षा या साम्प्रदायिक शिक्षा से विविधता पूर्ण चिंतन प्रक्रिया पर लगाम कस जाती है। इससे सभ्यता के विकास के लिए शिक्षा के रास्ते मानव पूंजी निवेश पूरी तरह प्रभावित हो जाता है।
यदि मानव समाज को धर्म की कोई आवश्यकता है तो उससे अधिक आध्यात्मिकता की आवश्यकता है। यह कर्मकांडी नहीं होता है। यह साम्प्रदायिक भी नहीं होता है। कर्मकांडी प्रभावित शासक और शासन आध्यात्मिकता का विरोधी हो सकता है। यह सर्वधर्म और विविधता का विरोधी भी हो सकता है। इसलिए अपने बच्चों को आंखें बंद करके धार्मिक वर्चस्व के लिए चलाए जा रहे मुहिम से बचाया जाना चाहिए। उनके मन में एक कर्मकांड के लिए अनुराग और दूसरे के लिए विराग उत्पन्न होने के बचाने का प्रथम कर्तव्य माँ-बाप और परिवार और समाज का होता है। उन्हें यह कर्तव्य हमेशा याद रखना चाहिए। नेह।
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