संजय कुमार का कॉलम:भाजपा महाराष्ट्र में तो जीती लेकिन झारखंड में क्यों हारी?
महाराष्ट्र और झारखंड चुनावों के नतीजों में कुछ समानताएं हैं तो कुछ अंतर भी। बड़ी समानता यह है कि दोनों राज्यों में सत्तारूढ़ गठबंधन न केवल सत्ता में लौटा, बल्कि पहले से कहीं ज्यादा बड़ा जनादेश भी हासिल किया। झारखंड में झामुमो गठबंधन ने 56 सीटें जीतीं (पिछले चुनाव से 9 सीटें ज्यादा) और 44.3% वोट हासिल किए, जो पिछले चुनावों की तुलना में 9% ज्यादा हैं। इसी तरह, महाराष्ट्र में सत्तारूढ़ महायुति गठबंधन ने 49.1% वोट शेयर के साथ 234 सीटें जीतकर प्रचंड बहुमत हासिल किया। अकेले भाजपा ने 132 सीटें और 26.8% वोट हासिल किए, जो महाराष्ट्र में उसका अब तक का सबसे अच्छा प्रदर्शन है। लेकिन बड़ा अंतर यह है कि जहां भाजपा ने महाराष्ट्र में बड़ी सफलता दर्ज की, वहीं झारखंड में वह एक बार फिर विफल रही। दोनों राज्यों में सत्तारूढ़ गठबंधन की जीत और विपक्ष की विफलता में कई फैक्टर्स ने योगदान दिया, पर दो चीजें साफ हैं : कल्याणकारी योजनाएं और महिला मतदाताओं का समर्थन। सत्तारूढ़ गठबंधन ने महाराष्ट्र में महिलाओं के लिए लाड़की बहिन योजना और झारखंड में मैया सम्मान योजना को लागू किया और इन योजनाओं के लाभार्थियों ने बड़ी संख्या में सत्तारूढ़ गठबंधन को वोट दिया। मतदाता महायुति के प्रदर्शन से संतुष्ट थे। केंद्र और राज्य दोनों सरकारों के प्रति सकारात्मक रुख देखा गया। सर्वेक्षणों में पांच में से दो उत्तरदाताओं ने ही इन सरकारों के प्रति पूर्ण असंतोष जताया। वहीं हर पांच में से कम से कम एक मतदाता ने कहा कि उनका वोट नरेंद्र मोदी से प्रभावित था। चुनाव के दौरान, भाजपा ने ‘एकता’ के महत्व पर जोर दिया। हालांकि इस अपील में सीधे तौर पर किसी धर्म का उल्लेख नहीं था, लेकिन यह स्पष्ट था कि हिंदुओं से जातिगत मतभेदों को दूर करके एक होने की अपील की जा रही है। लोकनीति-सीएसडीएस सर्वेक्षण के निष्कर्ष बताते हैं कि 22% हिंदू उत्तरदाताओं ने माना किसे वोट देना है, यह तय करने में हिंदू एकता एक प्रमुख विचार था। इस प्रकार, मोदी फैक्टर और हिंदू एकता के संयोजन ने एक बड़े और व्यापक सामाजिक गठबंधन को आकार दिया, जिसने महायुति की शानदार जीत का मार्ग प्रशस्त किया। महायुति ने विभिन्न सामाजिक वर्गों को मिलाकर एक बड़ा गठजोड़ बनाया है। उसे पुरुषों की तुलना में महिलाओं के अधिक वोट मिले। गरीब मतदाताओं के बीच महायुति का समर्थन कुछ कम है, उसे दलितों और आदिवासियों का भी कम समर्थन मिला और मुसलमानों का तो और भी कम। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि लगभग तीन दशकों के बाद, हम मराठा और ओबीसी दोनों वोटों को महायुति के पक्ष में एकजुट होते हुए देख रहे हैं। यह भी नहीं भूलना चाहिए कि सीटों के बंटवारे में मतभेदों को सुलझाने का काम अघाड़ी की तुलना में महायुति ने बेहतर तरीके से किया। प्रचार के दौरान शिंदे की अगुआई वाली भाजपा और शिवसेना एक ही सुर में बोलती दिखीं, हालांकि अजित पवार की एनसीपी कई बार मुख्य पटकथा से अलग हट गई। दूसरी ओर, अघाड़ी में तीनों दलों ने अलग-अलग अभियान चलाए। उनके पास सकारात्मक संदेश का भी अभाव था, जो मतदाताओं को आकर्षित कर सके। झारखंड में झामुमो के नेतृत्व वाले गठबंधन की शानदार जीत प्रभावी प्रबंधन और मतदाताओं के दिलों को छूने वाले मुद्दों पर आधारित चुनाव अभियान पर केंद्रित थी। झामुमो के नेतृत्व वाली सरकार अपने ट्रैक रिकॉर्ड और आदिवासी हितों का प्रतिनिधित्व करने की अपनी छवि का बचाव कर रही थी। दूसरी ओर, भाजपा के नेतृत्व वाले गठबंधन ने एक बड़ा नैरेटिव पेश करने की कोशिश की, जो एक व्यापक वर्ग को आकर्षित करने और मौजूदा सरकार के खराब प्रदर्शन और भ्रष्टाचार पर आक्रामक हमला करने की कोशिश कर रहा था। वहीं भाजपा के नैरेटिव में हिंदुत्व की मजबूत खुराक कई आदिवासी समूहों को असहज कर रही थी। आदिवासी वोट झामुमो और गैर-आदिवासी वोट उसके गठबंधन सहयोगियों के खाते में गए। भाजपा ने यूसीसी और बांग्लादेशी घुसपैठियों के मुद्दे पर मतदाताओं को एकजुट करने की कोशिश की, लेकिन मतदाता स्थानीय पहचान के मुद्दों को लेकर अधिक चिंतित थे। संथाल समुदाय को छोड़कर, भाजपा अन्य आदिवासी समूहों को आकर्षित करने में सक्षम नहीं हो पाई। भाजपा के लिए राज्य के आदिवासियों से जुड़ना एक चुनौती होगी। हिंदुत्व को लोकप्रिय बनाने की अपनी महत्वाकांक्षा के साथ वह यह कैसे करेगी, इससे इस राज्य में राजनीतिक प्रतिस्पर्धा का भविष्य तय होगा। झारखंड में भाजपा ने समान नागरिक संहिता और बांग्लादेशी घुसपैठियों के मुद्दे उठाए, लेकिन मतदाता अपनी स्थानीय पहचान के मुद्दों को लेकर अधिक चिंतित थे। भाजपा के लिए राज्य के आदिवासियों से जुड़ना चुनौती होगी।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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