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बदलती दुनिया – एक

बदलती दुनिया – एक

नेह अर्जुन इंदवार

राजनैतिक-आर्थिक शक्ति, सांस्कृतिक और दार्शनिक अधिपत्य (Cultural, Religious Hegemony) में अन्योश्रित संबंध होते हैं। ये चारों एक दूसरे के रिश्तेदार होते हैं या कहें ये एक ही खानदान से संबंध रखते हैं।

आर्थिक महाशक्ति अमेरिका, जर्मनी, इंग्लैण्ड, जापान, चीन आदि की तूती विश्व राजनीति में भी आर्थिक शक्ति के कारण ही चलती है। भूटान, म्यान्मार, यमन जैसे देश न आर्थिक रूप से सम्पन्न हैं और न विश्व राजनीति में इनकी कोई आवाज़ कहीं सुनी जाती है।

अमेरिकी, यूरोपीय या पाश्चत्य संस्कृति की अधिपत्य पूरी दुनिया में अपनी धाक जमा चुकी है। इन्हीं आर्थिक सम्पन्न देशों में नये दार्शनिक सिद्धांत करवटें ले रही है। मुख्य बात यह है कि दुनिया की सोच और दर्शन में दूरगामी और वास्तविक बदलाव ऐसे ही केन्द्रों से आता रहा है।

पश्चिमी एशिया से निकली ईसाई मत यूरोपीय साम्राज्यों के आर्थिक घोड़े पर सवार होकर दुनिया की आधी आबादी तक पहुँची है। लेकिन आर्थिक शक्तियों के देश में पहुँच कर वह कई टुकड़ों में बँट चुकी है। सोहलवीं-उन्नीसवी सदी की यूरोप में यह महज आधा दर्जन रूप में विभाजित हुआ था, लेकिन विश्व शक्ति के देश अमेरिका में पहुँच कर यह निरंतर विभाजित होते हुए 39 हजार से भी अधिक अलग-अलग डिनोमिनेशन में बँट चुका है। ये सारे डिनोमिनेशन एक दूसरे से पूरी तरह अलग हैं और एक दूसरे से कंपिटिटर के रूप में पहचान कायम कर चुके हैं।

भारत में जन्में बौद्ध धर्म पूर्वी देशों से होते हुए आज अमेरिकी, यूरोपीय, अस्ट्रेलिया आदि में अपने पैर जमाने में लगा हुआ है, और हर एशियाई देशों के पृष्टभूमि में अपनी जड़े तलाश करता हुआ एक दूसरे से पूरी तरह अलग शख्शियत कायम कर चुका हैं। सिर्फ चीन और जापान में ही बौद्ध धर्म के सौ से अधिक अलग-अलग संप्रदाय हैं और निरंतर इसमें इजाफा होते जा रहा है। ये एक दूसरे से कमोबेश अलग सिद्धांतों और पद्धतियों पर विश्वास करते हैं और इनकी पहचान ही अलग और एक दूसरे से जुदा हैं। बस नाम एक है।

आमतौर से मुस्लिम धर्म को शिया और सुन्नी के रूप में हम जानते हैं। लेकिन हर देश में इसके चेहरे अलग-अलग हैं। भारतीय मुस्लिम चेहरे को अरब में मुस्लिम मानने से इंकार किया जाता है। अरब, इंडिनेशिया, मलेशिया, भारत सीरिया, तुर्की, तुर्केमिनिस्तान आदि में इस्लाम के विभिन्न-भिन्न रूप देखने को मिलते हैं। इनकी इन रूपों में सिर्फ नाम की एकरूपता है। साउदी पेट्रो डॉलर कभी शियाओं को नहीं मिलते हैं तो ईरानी पेट्रो डॉलर भूल कर भी सुन्नी सम्प्रदाय को नहीं मिल सकते हैं। आर्थिक-राजनैतिक-धार्मिक गठबंधन पूरी दुनिया में इसी तरह विभाजित रूप से कार्य करते हैं। जितनी आप इनके भीतर में जाएँगे, हर बार नये परत आपको दिखाई देंगे।

भारत में हर राज्य और क्षेत्र में अलग-अलग आदिवासी पूजा-पाठ की परंपरा है। आदिवासी विश्वास हिंदू धर्म से 80 फीसदी तक अलग है। सबसे प्राचीन पूजा परंपरा आदिवासियों की ही है। लेकिन दो आदिवासी समुदायों के धर्म-विधि कहीं एक सा सदृष्य नहीं हैं। वहीं हिंदू धर्म में कितने मत और मतांतर है इसके बारे भी सिर्फ अनुमान ही लगाया जा सकता है। हर आश्रम और मंदिर में अलग-अलग देवता और परंपरा होते हैं। 33 करोड़ देवताओं का हिसाब-किताब आमतौर से शायद ही कोई रखता है। किसी देवता को गर्मी में कूलर चाहिए होता है, तो कोई दिन में निश्चित समय में आराम फरमाता है। कहीं बर्फ के देवता का दर्शन किया जाता है तो कहीं मंदिर में बकरे का मांस चढ़ाया जाता है। सिख और जैन धर्म में भी कई धड़े कार्यशील हैं जो एक दूसरे से पूरी तरह असंबद्ध है। उनमें वैवाहिक संबंध तक नहीं होते हैं।

एक ही केन्द्रिय ईश्वरीय प्रभुसत्ता के बारे विभाजित मतों से कहें या अलग-अलग देवीय ईश्वरीय प्रभुसत्ता की बात करें, पृथ्वी पर कितने मत और मतांतर है, इस पर कोई अध्ययन शायद ही पूरी हो सकेगी। हर आदमी का दिमाग, अलग सोच और विचार से संचालित होता है। ईश्वरीय, देवीय, या आध्यात्मिकता पर विचारों की कितनी विविधता और विभिन्नता होगी, यह बताना शायद सुपर कम्प्यूटर के बस की ही बात होगी। आदमी की तो नहीं। किस धर्म को आप सच्चे कहेंगे और किसे सच्चाई से दूर ? सबसे बड़ी यह है कि कौन से धर्म के अनुयायी अपने धर्म के सभी आज्ञाओं का पालन करते हैं और अपने धर्म की बातों को अक्षरशः पालन करते हैं ?

मनुष्य जन्म लेता है तो वह जन्म के साथ अपनी जिंदगी को अलग अनुठे ढंग से जीने के लिए अपना अलग लाईफ-टूल (Life tools/equipments) लेकर नहीं आता है न ही उसका वह ईजाद करता है। लाईफ टूल बोले तो दूसरों से अलग अपनी भाषा, संस्कृति, दर्शन, सिद्धांत, सरकार, अर्थ व्यवस्था, राजनीति, फैशन, बोली का लहज़ा वगैरह। अपने लिए अनुठी भाषा, संस्कृति का ईजाद करना किसी आदमी के बस की बात नहीं।

हर व्यक्ति दुनिया में पहले से ही मौजूद चीजों का उपभोग और Copy करके दुनिया को समझने का प्रयास करता है। अपनी क्षमता, खास आदत, वातावरण के अनुसार चीजों को अपने दिमाग में बैठाता है और जीवन जीने के उपलब्ध टूल को आवश्यतानुसार उपभोग करने की कोशिश करता है। भाषा सीखना, शिक्षा प्राप्त करना सभी चीजें प्रथम स्तर पर सिर्फ Copy करना और दिमाग में इकट्ठा करना ही होता है।

सूचना, जानकारी, ज्ञान, शिक्षा आदि तमाम बातों का कोई न कोई स्रोत होता है। अनेक चीजें व्यक्ति की व्यक्तिगत अनुभव से भी जुड़ जाती है। यह अनुभवगत प्राप्त टूल होता है। लेकिन इसका प्रतिशत नगण्य होता है। अधिकतर आमलोग समाज में प्रचलित जिंदगी को ही अपने तरीके से जीते हैं और इसमें उन्हें कोई बुराई नज़र नहीं आती है।

लेकिन हर व्यक्ति अनुठा (Unique) होता है और उनके पास सूचनाओं (डेटा) को विश्लेषण करने की क्षमता से परिपूर्ण एक अनुठा दिमाग भी होता है। अनेक दिमागों में ऐसी स्थिति भी आती है, जब वह अपनी बौद्धिक क्षमता से चीजों को नये ढंग से दिमाग में प्रोसेस करता है, अपनी विद्वता, क्षमता और कर्मठता से वह कुछ नयी चीजों का अविष्कार करता है या पुरानी चीजों का परिष्कार करता है। वैज्ञानिक या दार्शनिक विचारकों का जन्म ऐसे ही होता है।

सभ्यता का विकास का क्रम यूँ ही चलता रहता है। पिछले 20 हजार वर्षों में जाने कितने करोड़ लोगों ने अपनी दिमागी क्षमता से सभ्यता में कितने परिवर्तन लाए हैं, इसकी कोई गिनती कभी नहीं की जा सकेगी। इसी क्षमता और प्रक्रिया को स्थायी बनाने के लिए कॉपीराईट जैसे कानूनों को बनाया गया। ऐसे ही लोगों को जिनियस या युग प्रवर्तक कहा गया है।

लेकिन इन सबसे हट कर आप एक ऐसी स्थिति की कल्पना करें कि दुनिया के किसी शक्ति द्वारा यदि मनुष्य को अविष्कार और परिष्कार करने की इजाजत ही न मिले और अविष्कार और परिष्कार करने पर उस शक्ति द्वारा अविष्कारक और परिष्कारक को भयानक सजा दी जाए तो क्या होगा ?

यदि ऐसी स्थिति वकई में पूरी दुनिया में लागू हो जाए तो नयी सोच, विश्लेषण, अविष्कार-परिष्कार बंद हो जाएगा और दुनिया ठहर जाएगी। फिर एक ऐसी स्थिति पैदा होगी, जहाँ दिमागी सोच विचार की प्रक्रिया बंद हो जाएगी। पूरी दुनिया के विकास का रथ रूक जाएगा। यदि यह कई पीढ़ियों तक लागू रह जाए तो मनुष्य पशुओं की उन गतियों को प्राप्त करने लगेंगे, जहाँ कोई रचनात्मक, सृजनात्मक काम नहीं होते हैं। बस दिन निकलने पर घास चरते हैं। पेट भरने पर बैठ कर मुँह चला कर पगुराना शुरू करते हैं। फिर अगले दिन की शुरूआत होने तक नींद लेने की कोशिश करते हैं। ऐसी स्थिति में दुनिया वापस कहाँ पहुँच जाएगी, इसकी कल्पना करना बहुत मुश्किल नहीं है।

कई झक्की राजाओं, बादशाहों के अधीन ऐसी कोशिशें भूतकाल में अनेक बार हुई थीं। लेकिन मनुष्य आंतरिक रूप से स्वतंत्रता सोच की होता है। इसलिए ऐसी कोशिशें हर बार असफल सिद्ध हुई है। दुनिया में अविष्कार-परिष्कार करने की सीमा बांधने की कोई कोशिश कभी सफल नहीं हुई। मनुष्य का दिमाग उत्सुक और जिज्ञासु होता है, यह इसकी अनुठा चारित्रिक विशेषता है।

राजाओं, राजपूरोहतों, धार्मिक संगठनों के द्वारा धर्म के क्षेत्र में कई सिद्धांतों पर अविष्कार-परिष्कार की सीमा बांधने की बहुतेरे कोशिश लगातार की गई और यह कोशिश आज भी जारी है। अधिकतर धर्म कुछ बातों में भयानक रूप से अपरिवर्तनशील है। उन्होंने कुछ परंपराओं, सोच, दर्शन को हमेशा के लिए बाँध कर रखने की कसम खा लिया था। उनके भगवान, ईश्वर आदि की परिकल्पना, अवधारणा में किसी नये मोड़, नये अविष्कार और परिष्कार की कोई गुंजाईश नहीं है। जिस धर्म ने जिसे एक बार ईश्वर मान लिया, उसका रूप और परिचय स्थिर कर दिया। उस पर किसी बहस की कोई गुंजाईश नहीं होती है। अनेक देशों में ईशनिंदा तक के कानून बना कर इसे स्थिर करने की कोशिश की गई है। उपरी तौर से यह अटल प्रतीत होता है। लेकिन लेकिन क्या ऐसा संभव है? दुनिया के आर्थिक और राजनैतिक शक्ति केन्द्रों में नये विचारों के लिए हमेशा गुंजाईश बनी रही और मनुष्य का दिमाग अन्जाने क्षेत्र में अपना दिमाग लगाता रहा। नये विचारों को आर्थिक शक्तियाँ ऐन केन प्रकरेण दुनिया पर थोपने में कामयाब हो ही जाते हैं। क्रमशः। नेह।

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