बंगाल का उपनिवेश चाय अंचल
नेह इंदवार
उपनिवेशवाद या Colonization किसी दूसरे देश या क्षेत्र को नियंत्रित करने और उसके लोगों और संसाधनों का शोषण करने की अमानवीय प्रथा है। ब्रिटिश साम्राज्य ने भारत पर अपना औपनिवेशिक राज स्थापित किया था, वैसे ही फ्रांस ने अफ्रीकी देशों पर राज किया था और उसका आर्थिक शोषण करके अपने समाज और देश को समृद्ध किया था।
दूसरे देश के इत्तर भी किसी देश के अंदर ही पूँजीवादी व्यवस्था में इसके कई छोटे रूप भी होते हैं और किसी क्षेत्र और समाज विशेष को नियंत्रित करके उनके लोगों और संसाधनों का शोषण किया जाता है। जैसे उपनिवेशवादी व्यवस्था को सफलता दिलाने के लिए उपनिवेशवादी सरकारें नियम-कानून बनाती हैं। वैसे ही पूँजीवादी व्यवस्था में पूँजीपति अपने पूँजी के बल पर राजनीति और सत्तासीन लोगों को यूज करके शोषण के माध्यम को मजबूत बनाते हैं।
ऐसी स्थानीय उपनिवेश के अंतर्गत एक देश के अंदर ही तमाम कानून और नैतिकता के होते हुए भी कमगारों और संसाधनों का शोषण होता है और पूँजीवादी व्यवस्था में इसके लिए खुद सरकार आगे बढ़ कर पूँजीपतियों की सुविधा के लिए नियम कानून बनाती है। ऐसा तब होता है जब पूँजीवादी व्यवस्था में एक क्षेत्र और समाज को आर्थिक उपनिवेश बनाया जाता है। ऐसे उपनिवेश को बनाने के लिए कानून और संविधान का आड़ लिया जाता है।
पश्चिम बंगाल और असम के चाय उद्योग में हाल तक तकनीकी का इस्तेमाल बहुत कम हुआ था। कलम और खुलनी के लिए अब तकनीकी का इस्तेमाल किया जा रहा है। तथापि इस उद्योग को चलाने, भारी मुनाफा कमाने के लिए सस्ते मजदूर एक अनिवार्य कारक है। भारत में सस्ते मजदूर होने का मतलब अनपढ़ और साधनहीन होना होता है। शोषण के अर्थशास्त्र में सस्ते मजदूरों की आपूर्ति को बनाए रखने के लिए मजदूर समाज को साधनहीन, शिक्षाहीन रखना एक अनिवार्य मांग होती है। इसीलिए स्वतंत्र भारत में चाय मजदूरों के शोषण में सीधा या परोक्ष रूप से सरकार, राजनैतिक पार्टी और नेतागणों का नापाक गठजोड़ काम करता रहा है। चाय मजदूरों को अशिक्षित रखने के लिए नीतियाँ बनाई जाती थीं। अंग्रेजों के जमाने में जितना शोषण होता था, उससे अधिक शोषण आजाद देश के तमाम प्रगतिशील कानूनों के रहते हुए भी हो रहा है। बागान क्षेत्र में मजदूरों के बच्चों को अच्छी शिक्षा न मिले और यदि किसी अंश को मिल भी रही हो तो भी उसकी संख्या को कम रखने की चाल एक अघोषित नीति बनी हुई थी। चाय मजदूरों के शोषण में सरकार अग्रणी भूमिका निभाता रहा है। उनके क्षेत्र में मुकम्मल शिक्षा के लिए उचित स्तर के विद्यालय या शिक्षक मुहैया नहीं किया जाता था। आज भी कमोबेश स्थिति नहीं बदली है। उन्हें जानबुझ कर गरीब, मजबूर और अशिक्षित रखने की नीति का कार्यान्वयन सरकार अपने त्रिपक्षीय एग्रीमेंट्स के माध्यम से करती रही है। कहने को तो सरकार त्रिपक्षीय समझौतों में एक हस्ताक्षरी होती है, लेकिन वह कभी भी चाय बागानों के लिए बनाए गए किसी भी कानून का पालन ईमानदारी से नहीं करती है। यही नहीं चाय बागानों के बीच से ईमानदार नेतृत्व को भी उभरने से रोकने के लिए सारे जतन किए जाते हैं। देश के 78 आजादी दिवस मनाना गया है, लेकिन चाय मजदूरों की फटेहाल, गरीबी की दशा ही देशी निर्लज्ज उपनिवेश की गाथा कहती रही है। इसका एक कारण यहाँ से ईमानदार नेताओं को न उभरने देना भी है। मजदूरों तक विकास संबंधी बातें न पहुँचना और उनका जागरूकहीन होना भी दूसरा कारण है।
स्वतंत्र के बाद सभी उद्योग क्षेत्र के विकास के लिए उसके कर्मचारियों के सामाजिक, शैक्षिक और आर्थिक विकास को एक अनिवार्य अंग माना गया। लेकिन चाय क्षेत्र के मजदूरों को सामाजिक, आर्थिक सहित सभी क्षेत्र में कमजोर करने का कोई मौका नहीं छोड़ा गया। चाय बागान को भारत के राज्यों के अंदर ही उपनिवेश बनाया गया है और चाय मजदूरों को नियंत्रित करने के लिए सभी तरह के उपायों को आजमाया जाता रहा है।
कुछ दशक पहले तक शिक्षा सत्र् के दौरान मजदूरों के बच्चों को शिक्षा से विरत रखने के लिए, उन्हें बाल श्रमिक के रूप में चाय बागान में लगाया जाता था। उन्हें बारिश के महीने में चाय पत्तियों को खा कर नष्ट करने वाले वाले कीड़ों को पकड़ने का काम दिया जाता था। जो दो तीन महीने तक चलता था, इस बीच बाल मजदूर कुछ आय उपार्जित करके परिवार की सहायता करते थे, लेकिन दो तीन महीन स्कूल न जाने के कारण उस दौरान वे शिक्षा से असंबद्ध होते थे और इसका गहरा असर उनकी पढ़ाई पर पड़ता था। फलतः वे कक्षाओं में थोक के भाव में फेल हो जाया करते थे और फिर ड्रॉपआउट होकर चाय बागान में मजदूर बन जाते थे। सस्ते मजदूर की आपूर्ति बनाए रखने का यह एक तरीका था। इसके लिए नियम बनाया गया कि माँ-बाप के रिटायरमेंट के बाद उनके बच्चों को बदली में काम दिया जाएगा और इसके साथ उनके क्वार्टर भी पैत्रिक रूप से उन्हें मिलेगा।
तब चाय बागानों में अधिकतर बंगला माध्यम के स्कूल स्थापित किए जाते थे, जहाँ बाहर के शिक्षकों की बहाली होती थी और शिक्षकों को रहने के लिए बागान प्रबंधन द्वारा क्वार्टर और राशन भी दिया जाता था। प्लान्टेशन लेबर एक्ट के तहत प्राईमरी स्कूल खोलने की जिम्मेदारी भी बागान प्रबंधन को दिया गया था। इस तरह शिक्षक भी बागान के कर्मचारी ही होते थे और बागान प्रबंधन के नियंत्रण में कार्य करते थे। प्रबंधन के प्रभाव में रहने के कारण वे बच्चों को अच्छी शिक्षा नहीं देते थे। क्योंकि अच्छी शिक्षा से बच्चे अपने अधिकार के प्रति जागरूक हो जाते थे और पढ़ लिख कर बाहर चले जाते थे, जिसके कारण सस्ते मजदूर की आपूर्ति में बाधा उत्पन्न होती थी। इसलिए सरकार और बागान प्रबंधन के प्रभाव से मजदूरों के बच्चों की शिक्षा गुणवत्ता को भी घटिया स्तर का रखा जाता था। आजाद देश में मजदूर के बच्चों को भी शिक्षा दी जा रही है, यह दिखाया जा रहा था, लेकिन व्यवस्था को कालूषित बना कर उनके शैक्षणिक विकास को लंगड़ा बनाए रखने की व्यवस्था कर ली जाती थी।
पश्चिम बंगाल में मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी न देना, रविवार के छुट्टी का वेतन न देना, उन्हें घटिया शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा देना, उनके कल्याण के लिए बनाए गए अधिनियम यथा प्लानटेशन लेबर एक्ट, पीएफ, ग्रेज्युएटी आदि का सरकार द्वारा जानबुझ कर लागू न करना या परोक्ष रूप से इन कानूनों को निष्प्रभावी रखना, उनके लेबर डिपार्टमेंट द्वारा इनके उल्लंघन के लिए कोई दंडात्मक कार्रवाई न करना, उनके स्थायी घर, संस्कृति और सामाजिक तानाबाना को स्थानांतरित करके उन्हें नेस्तानुबाद करने की कोशिश करना आदि इसी उपनिवेशवादी नियंत्रण और शोषण के चक्र को बनाए रखना या उसे अधिक प्रभावी बनाए रखने का हिस्सा रहा है। इस कोढ़ की बीमारी में ट्रेड यूनियन में बाहरी और मालिकों के समुदाय से नेताओं की मौजूदगी से शोषण की व्यवस्था कमजोर होने के बजाय शक्तिशाली हो जाता था।
बगानियारों के दशकों पुरानी, अपने घर की जमीन का Non encumbrance, clear title खतियान की मांग को, दशको तक नजरांदाज किया गया। जबकि वास्तविक रूप से यह उनकी पैत्रिक भूमि है, जिसका उनके पास कोई कानूनी कागजात नहीं है। उनके जमीन आंदोलन को दबाने के लिए उन्हें गाँव से बाहर किसी अप्रिय जगहों में विस्थापित करके उन्हें नये झोपड़ बनाने के लिए सिर्फ 5 डेसीमल Non Transferable, Heritable only जमीन देने का नोटिफिकेशन निकाला गया, जो 154 सालों से एक जगह रहने वाले मजदूर समाज के हित के खिलाफ है। यह नोटिफिकेशन मजदूरों को Full encumbrance, non-clear title जमीन में उन्हें फंसाने का एक षड्यंत्र है। इस नोटिफिकेशन से मिले जमीन का कोई आर्थिक या मौद्रिक लाभ कभी भी मजदूरों को नहीं मिलेगा और वे उस जमीन में एक किरायादार के रूप में रहने के लिए विवश रहेंगे। क्योंकि वह जमीन हमेशा सरकारी जमीन बनी रहेगी और भविष्य में सरकार कभी भी उस जमीन को वापस ले सकती है और उन्हें फिर से बगानियारों को विस्थापित किया जा सकेगा।
इस मजदूर विरोधी नीति को सफल बनाने के लिए गरीब मजदूरों को 1 लाख 20 हजार रूपये का दाना डाला गया, ताकि नियंत्रण और शोषण के उपनिवेश को बनाए रखा जा सके। इस मजदूर विरोधी जमीन नीति को कामयाब बनाने के लिए सरकार ने मजदूर नेताओं को ही दलाल के रूप में कार्य में लगाया और कई जगहों में इसे अमली जामा पहनाया गया।
लेकिन इसके समानांतर और एक नीति भी लाया गया जो पूँजीपतियों के हित के लिए बनाया गया था। मजदूरों के जमीनी हक की आवाज़ को चालाकी से डायवर्ट करके इसे पूँजीपतियों के आर्थिक लाभ योजना में बदल दिया गया । 2023 में ही सरकार ने एक और नीति बनायी जिसके तहत पूँजीपतियों को अपने कंपनी की अधीन लीज की जमीन को Full Transferable जमीन के रूप में खरदीने की अनुमति दी गई। पूँजीपतियों को सुविधा देने के लिए जमीन की कीमत बेहद कम रखी गयी और इसे Full Transferable and Non encumbrance के रूप में खरीदने की अनुमति दी गई। यह पूँजीपतियों और राजनीतिज्ञों को बेशकीमती जमीन बेचने की योजना और उन्हें अधिकतम सुविधा देने के लक्ष्य को पूरा करने का कवायद है। एक ओर तो 154 सालों से एक ही जमीन पर बैठे मजदूरों को पैत्रिक जमीन के Clear Title खतियान की मांग से वंचित करने के लिए 5 डेसीमल जमीन का नोटिफिकेशन निकाला गया और उन्हें भूमिहीन बना कर सरकारी जमीन का किरायादार बनाने की कोशिश की गई। दूसरी और महज कुछ साल पूर्व पूँजी के साथ महानगरों से उत्तर बंगाल आए पूँजीपतियों को हमेशा के लिए जमीन स्थानांतरित करके उन्हें नये जमींदार बनाने का रास्ता निकाला गया । इसके लिए टी टूरिज्म का बहाना बनाया गया। भेदभाव, अन्याय और चालाकी का यह इंतहा ही है, जो सिर्फ एक उपनिवेशिक व्यवस्था में ही हो सकता है।
बगानियारों के पैत्रिक जमीन को 1953 के West Bengal Estate Acquisition Act के द्वारा उन्हें बागान मालिकों को लेबर क्वार्टर बनाने के लिए दिया गया था। उसी जमीन को बगानियारों जो जहाँ है, उसे वैसे ही स्थिति में वापस करने के बजाय उन्हें किराए का 5 डिसमील जमीन का भीख देना उपनिवेशी शोषण और अभूतपूर्व भेदभाव का ही एक रूप है। फिलहाल यदि बगानियार अपने जरूरत के मुताबिक वर्तमान क्वार्टर में कोई परिवर्तन करता है तो उस पर कंपनी दंडात्मक कदम उठाता है। ठीक यही 5 डेसीमल के Non Transferable, only Heritable जमीन पर भी सरकार करेगी। एक स्वतंत्र देश में सिर्फ मजदूरों पर एकतरफा परतांत्रिक नीति को लागू करना इसका सबूत है कि मजदूर एक स्वतंत्र व्यवस्था नहीं बल्कि उपनिवेशिक व्यवस्था में सांस लेते हैं।
चाय कंपनियाँ चाय उद्योग के लिए पारित कानून यथा दी प्लान्टेशन लेबर एक्ट, पीएफ एक्ट, ग्रेज्युएटी एक्ट, मेडिकल एक्ट, हेल्थ एक्ट, पेस्टिसाईड एक्ट आदि का सरेआम उल्लंघन करती हैं। लेकिन इन तमाम कानूनों के उल्लंघन कर्ता कंपनियों के विरूद्ध में किसी भी तरह का कोई कार्रवाई सरकारी विभागों द्वारा नहीं किया जाता है। यह चाय अंचल के उपनिवेश होने के दावों को पुख्ता करता है। पश्चिम बंगाल का उत्तर बंगाल स्थित चाय अंचल कोलकाता नामक देश का उपनिवेश है और इस उपनिवेश का अधिकतम आर्थिक, सामाजिक और मनोवैज्ञानिक शोषण करने के लिए पश्चिम बंगाल नामक देश का प्रभुवर्ग साम दाम दंड भेद की नीतियों को अपनाता रहा है।
चाहे वह बंगला को अनिवार्य बना कर हिन्दी और अंग्रेजी शिक्षितो के रोजगार अधिकार को छीनना और उन्हें बेरोजगार रहने के लिए विवश करना है या उन पर बंगला भाषा को थोपना या छोटी-छोटी नौकरी के लिए भी उन्हें अयोग्य बताना और जम कर एसटी नकली सर्टिफिकेट जारी कर असली समाज को आर्थिक और सामाजिक नुकसान पहुँचाना, उनके जमीन की लूट पर नीतियाँ बन कर, उन्हें असहाय, साधनहीन बनाना आदि उपनिवेश को मजबूत करने का कार्य ही है।
एक बहुभाषी समाज में पढ़ाई, रोजगार के लिए बंग्ला भाषा को अनिवार्य बना कर हिन्दी और अंग्रेजी पढ़ने वालों के साथ संवैधानिक, कानूनी और सामाजिक आघात पहुँचाने का लक्ष्य यही कहता है कि पश्चिम बंगाल का चाय अंचल कोलकाता नामक शोषक देश का उपनिवेश है और यहाँ के समाज और संसाधनों का शोषण करके भारी मुनाफा कमाना उनका मुख्य ध्येय है। पश्चिम बंगाल में बनाए गए इस उपनिवेश को राज्य सरकार ने कभी भी संवैधानिक जनकल्याणकारी राज्य बनाने का कोई प्रयास नहीं किया। जब भी अधिकारों के लिए कोई आवाज़ उठती है या हक मांगा जाता है तो इसे कोलकाता अनसुना करता है या चालाकी से कोई हानिकारक कानून ला कर शोषण को अधिक मजबूत करता है। ऐसा लगता है कि औपनिवेशिक दासता को एक अलग राज्य बना कर ही समाप्त किया जा सकता है। लोकतांत्रिक तरीके से इस उपनिवेश से स्वतंत्र होने का बगानियारों को जन्म सिद्ध अधिकार प्राप्त है।
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