अपराजिता विधेयक का विरोध क्यों हो रहा?
कानूनी विशेषज्ञों, पर्यवेक्षकों और महिला अधिकारों के लिए कार्य करने वाली संस्थाओं का कहना है कि बंगाल में अपराजिता विधेयक का पारित होना सरकार की एक त्वरित प्रतिक्रिया है, न कि कानूनी अनिवार्यता।
हालांकि कानून पारित हो चुका है, लेकिन विरोध प्रदर्शनों में कोई कमी नहीं आई है। बुधवार को एक और ‘रिक्लेम द नाइट’ विरोध प्रदर्शन हुआ, जिसमें लोगों ने अपने घरों की लाइटें बंद कर दीं और दीये, मोमबत्तियाँ व मशालें लेकर सड़कों पर उतर आए। कहीं-कहीं राज्य सरकार के द्वारा दिए गए आवार्ड वापसी की बातें भी कही जा रही है, वहीं दुर्गापूजा समितियों को दी जाना वाली सहायता राशि का बहिष्कार की किया जा रहा है।
कानूनी विशेषज्ञों ने इस पर जोर दिया कि सख्त सजा अपराध को रोकने में प्रभावी नहीं होती है। अपराजिता महिला और बाल (पश्चिम बंगाल आपराधिक कानून संशोधन) विधेयक, 2024, जो लगभग सभी प्रकार के बलात्कार के लिए मृत्युदंड का प्रावधान करता है, कोलकाता के आर.जी. कर मेडिकल कॉलेज और अस्पताल (आरजीकेएमसीएच) में एक डॉक्टर के साथ हुए भीषण बलात्कार और हत्या की तात्कालिक प्रतिक्रिया के रूप में देखा जा रहा है।
मंगलवार को राज्य विधानसभा में सर्वसम्मति से पारित इस विधेयक में भारतीय न्याय संहिता (बीएनएस) के तहत पांच अपराधों में संशोधन का प्रस्ताव है, जिनमें बलात्कार, पुलिस अधिकारी या लोक सेवक द्वारा बलात्कार, बलात्कार के कारण मृत्यु या पीड़िता को गंभीर स्थायी चोट पहुंचाना, सामूहिक बलात्कार, और बार-बार अपराध करने वाले को मृत्युदंड का प्रावधान शामिल हैं।
बंगाल विधानसभा द्वारा पारित इस विधेयक की कड़ी आलोचना हो रही है, खासकर बलात्कार के लिए मौत की सजा के प्रावधान को लेकर। इस विधेयक में बीएनएस की संबंधित धाराओं में संशोधन किया गया है।
बंगाल की महिलाओं के एक समूह ने मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को पत्र लिखकर विधेयक के प्रावधानों पर सवाल उठाए हैं। इस समूह, जिसमें सामाजिक कार्यकर्ता और कानूनी विशेषज्ञ शामिल हैं, ने सोशल मीडिया पर अपने पत्र को पोस्ट करते हुए विधेयक की आलोचना की है। उनका कहना है कि यह विधेयक दंड को बढ़ाने, लिंग संबंधी धारणाओं और जल्दबाजी में पेश किए जाने के चलते दोषपूर्ण है।
इस विधेयक ने सबसे अधिक ध्यान मृत्युदंड के प्रावधान को लेकर आकर्षित किया है। वकीलों का कहना है कि इस विधेयक में मृत्युदंड का अनिवार्य होना असंवैधानिक है। वे ऐतिहासिक मिठू बनाम पंजाब राज्य मामले (1983) का हवाला देते हैं, जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि मृत्युदंड किसी अपराध के लिए अनिवार्य नहीं हो सकता। एक वकील कौशिक गुप्ता का कहना है कि यह विधेयक राज्य सरकार की एक तात्कालिक प्रतिक्रिया है, जो आरजी कर बलात्कार और हत्या के मामले से उपजी है। उन्होंने सुझाव दिया कि अगर सरकार सचमुच महिलाओं की सुरक्षा को लेकर चिंतित है, तो उसे महिलाओं के लिए एक सुरक्षित वातावरण सुनिश्चित करने वाले निवारक उपायों पर ध्यान देना चाहिए था।
पत्र में चिंता जताई गई है कि विधेयक का उद्देश्य मुख्य रूप से दंड बढ़ाकर बलात्कार को रोकना है। इसमें यह भी कहा गया है कि सख्त सजा की वजह से दोषसिद्धि की दर कम हो सकती है। पत्र में विशेष टास्क फोर्स और अदालतों के गठन पर भी सवाल उठाए गए हैं, क्योंकि बिना उचित बुनियादी ढांचे, कर्मियों और धन के नई एजेंसियों की स्थापना प्रभावी नहीं होगी।
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