सरकार ने फिर लटकाया न्यूनतम वेतन का मुद्दा
नेह इंदवार
पश्चिम बंगाल सरकार ने चाय बगानियारों के न्यूनतम वेतन पर कलकत्ता हाईकोर्ट के छह सप्ताह के भीतर न्यूनतम वेतन घोषित करने के निदेश के बीच दिनांक 28 अगस्त 2024 को फिर से एक नया न्यूनतम वेतन सलाहकार समिति का गठन किया है।
नयी समिति भी पहले की तरह त्रिपक्षीय है और इसमें अधिकतर पिछली समिति के सदस्य और संगठन के पदाधिकारी ही नामित किए गए हैं। पर्यवेक्षकों ने सरकार के इस कदम को न्यूनतम वेतन के मुद्दों को पुनः लटकाने वाला एक कदम बताया है। जबकि कोलकाता उच्च न्यायालय ने 1 फरवरी से छह सप्ताह के भीतर न्यूनतम वेतन तय करके उसे नोटिफाई करने का आदेश दिया था। इसके अलावा भी इस मुद्दे पर कलकत्ता उच्च न्यायालय ने न्यूनतम मजदूरी अधिनियम, 1948 के तहत चाय बागान श्रमिकों के लिए न्यूनतम मजदूरी को अंतिम रूप देने के लिए पश्चिम बंगाल सरकार को कई निर्देश जारी किए हैं।
सरकार ने दिनांक 17.02.2015 को प्रथम बार न्यूनतम वेतन सलाहकार समिति का गठन किया था। जिसे श्रम मामलों से परिचित कुछ व्यक्तियों को समायोजित करने के लिए दिनांक 04.03.2015 को प्रथम बार विस्तारण दिया गया था। पश्चिम बंगाल राज्य के चाय बागानों में कार्यरत श्रमिकों के लिए न्यूनतम मजदूरी दर तय करने और उस पर राज्य सरकार को सलाह देने के लिए समिति का गठन हुआ था। लेकिन पिछले 9 सालों में 20 बैठकें करने के बावजूद समिति अपने इस कार्य को पूरा करने में फिसड्डी रही। फिलहाल चाय मजदूरों को न्यूनतम वेतन अधिनियम के तहत मजदूरी नहीं मिलती है और इसके लिए वे 2012 से ही लगातार मांग करते रहे हैं।
2023 में राज्य सरकार के द्वारा 18 रूपये मजदूरी वृद्धि को बागान मालिकों के एक ग्रुप ने कोलकाता उच्च न्यायालय में चुनौती दे रखा था। इसे वे सरकार के द्वारा एकतरफा लिया गया कदम बता रहे थे। कोर्ट में चली लम्बी बहस के उपरांत उक्त अंतरिम वेतन वृद्धि को कोर्ट ने बरकरार रखा और सरकार को आदेश दिया कि वह अगस्त 2023 से 6 महीने के भीतर श्रमिकों को न्यूनतम वेतन देने के लिए, इसका दर निश्चित करे और उसे नोटिफाई करे।
पश्चिम बंगाल सरकार ने इस आदेश के पारित होने के 6 महीने के बाद भी न्यूनतम वेतन निश्चित नहीं किया न ही कोई कदम उठाया। सरकार का रवैया बागान मालिकों की सहायता करना और कानूनी वेतन को तय करने में हमेशा टालमटोल वाला रहा है। इस मामले को लेकर एक ट्रेड यूनियन पश्चिम बंग चा मजूर समिति (पीबीसीएमएस) ने पुनः उच्च न्यायालय का ध्यान आकृष्ट किया, तब उच्च न्यायालय ने पुनः सरकार को इसे छह सप्ताह के भीतर नोटिफाई करने का आदेश पारित किया। लेकिन यह छह सप्ताह बीत जाने के बाद भी सरकार ने इस बारे कोई कदम नहीं उठाया। ऐसा लगता है कि कोर्ट के आदेश से भी पश्चिम बंगाल में कोई हलचल नहीं मचता है।
पुनः ट्रेड यूनियन के द्वारा इस तथ्य की ओर न्यायालय का दरवाजा खटखटाया गया तब कोर्ट ने एक महीने के भीतर सरकार से इस मामले पर हलफनामा दाखिल करने का आदेश दिया। लेकिन सरकार ने पुनः मामले पर टालमटोल रवैया अपनाते हुए पिछले अगस्त महीने में इस विषय पर नोटिफिकेशन No Labour-1/550278/2024/(LC-LW/ MW)/ Date : 28/08/2024 जारी करके और एक नयी वेतन सलाहकार समिति बनाने का फरमान जारी किया है। विडंबना की बात यह है कि चाय उद्योग क्षेत्र में दो दर्जन से अधिक ट्रेड यूनियन कार्यरत् है, लेकिन किसी भी यूनियन ने इस दौरान कोर्ट में मजदूरों की पक्ष रखने के लिए आगे नहीं आया। जबकि मजदूरों के हितचिंतक होने का ये लगातार ढिंढोरा पीटते हैं और चुनावों में उनके वोट पाने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा देते हैं।
सरकार द्वारा बनायी गई इस नयी समिति में पहले की तरह ही राज्य के श्रम मंत्रालय में अपर मुख्य सचिव को अध्यक्ष बनाया गया है और समिति में सरकारी सदस्यों के रूप में उद्योग, वाणिज्य, खाद्य एवं आपूर्ति, कृषि, उत्तर बंगाल विकास, पश्चिम बंगाल राज्य उत्पादकता परिषद के निदेशक, जलपाईगुड़ी डिवीजन के आयुक्त, अतिरिक्त श्रम आयुक्त, सिलीगुड़ी; को शामिल किया गया है। इसमें चाय बागान मालिकों के 10 एसोसिएशनों के प्रतिनिधि और मजदूरों के विभिन्न ट्रेड यूनियन की ओर से श्री मणिकुमार दर्नाल, श्री सूरज सुब्बा, श्री बीरेन्द्र बारा (उराँव), श्री तेज कुमार टोप्पो, श्रीमती दुर्गा गुरूँग, श्री मनोहर तिर्की, श्री निर्जल दे, श्री नकुल सोनार, श्री जियाऊल आलम और श्री रबिन राई को शामिल किया गया है। उक्त नोटिफिकेशन के अनुसार समिति का कार्यकाल एक वर्ष का है। उल्लेखनीय है कि मजदूरों के ट्रेड यूनियनों के प्रतिनिधियों के तौर पर उपरोक्त सदस्य पहले के समितियों में भी शामिल रहे थे और उन्होंने अपनी ओर से न्यूनतम वेतन के लिए पहले ही सरकार को सूझाव दे रखा है।
इसे सरकारी विभाग की टालमटोल और असंवेदनशील कार्यप्रणाली ही कहा जाएगा कि एक साल की मान्यता वाली इन समितियों की बैठकें कई-कई सालों तक खींची जाती हैं और एक बैठक से दूसरी बैठक की समयावधि छह महीने से अधिक या एक-एक साल की रखी जाती है। यह स्पष्ट है कि सरकार मजदूरों के कानूनी वेतन के मुद्दों पर कभी गंभीर नहीं रही है। इस तरह की अनियमित, अगंभीर और बेतरतीब बैठकों में ट्रेड यूनियन के प्रतिनिधिगण लगातार शामिल होते रहे हैं और कभी भी उन्होंने इसे लेकर या इसके विरोध में मजदूरों के साथ कोई आंदोलन नहीं किया, न ही ऐसी टालमटोल वाली सरकारी रवैये का विरोध करते हुए समिति से इस्तीफा देकर बाहर आए। इन्होंने कई बार सरकार को अपनी सलाहपूर्ण रिपोर्ट भी प्रस्तुत किया है। लेकिन सरकार इसकी कोई सलाह को मान्यता प्रदान नहीं की है और हर बार मुद्दे को टालने के लिए एक नयी समिति का गठन कर देती है या मौजूद समिति का कार्यकाल को विस्तार दे देती है।
ऐसा लगता है सरकार की मालिकों के प्रति प्रछन्न सहानुभूति के लिए किए जा रहे टालमटोल नीति को ट्रेड यूनियन के नेताओं का भी परोक्ष रूप से समर्थन हासिल है। कोर्ट में न्यूनतम मजदूरी के मामले पर हो रही किसी भी सुनवाई पर समिति के किसी सदस्य या उनके यूनियन के द्वारा मजदूरों के पक्ष में कोई बात नहीं रखना भी उनकी ट्रेड यूनियन आंदोलन में अगंभीरता को स्पष्ट करता है। न्यूनतम वेतन पर कभी भी मजदूरों की ओर से इन समितियों में शामिल हुए प्रतिनिधियों ने लिखित में अपनी बात को सर्कुलेट नहीं किया और मजदूरों को समिति के अंदर होने वाली बहस या तथ्यों से अवगत नहीं कराया।
न्यूनतम वेतन अधिनियम 1948 के अनुसार राज्य के तमाम असंगठित और संगठित क्षेत्रों के लिए राज्य सरकार हर छह महीने में न्यूनतम वेतन नोटिफिकेशन निकालती है। लेकिन इस पूरी प्रक्रिया में अघोषित कारणों से चाय उद्योग को बाहर छोड़ दिया है। जिसे त्रिपक्षीय वेतन समझौते के द्वारा पूरा किया जाता है और इसमें कानूनी रूप से घोषित न्यूनतम वेतन से बहुत कम दर वेतन देकर मजदूरों से कार्य लिया जाता है। इन समझौतों में महंगाई भत्ता देने की बातें भी लिखी जाती है, लेकिन कभी भी किसी भी सरकार ने इस पर कोई कार्रवाई नहीं की है और आज भी मजदूर महंगाई भत्ते से वंचित हैं। इस समझौते में फ्रिंज बेनेफिट्स के नाम पर कुल मजदूरी में से 57% हिस्सा बागान चलाने वाला प्रबंधन को दिया जाता है। लेकिन बागान प्रबंधन इतने अधिक हिस्सा पाकर भी मजदूरों को फ्रिंज बेनेफिट्स नियमानुसार नहीं देते हैं और बगानियार यहाँ भी आर्थिक शोषण का शिकार बनते हैं। 9 वर्षों से न्यूनतम वेतन के मुद्दे को टालने के कारण वेतन और महंगाई भत्ते का बकाया ही 2015 से अब तक कई अरब रूपये का हो सकता है।
बगानियार श्रमिक पिछले 9 सालों से न्यूनतम मजदूरी की आशा में जी रहे हैं। लेकिन पश्चिम बंगाल में सरकार इतनी फिसड्डी है कि यह कानूनी और संवैधानिक मामले पर कोई निर्णय नहीं ले पाती है। जबकि केरल में सरकार चाय बगानियारों के न्यूनतम वेतन दर को सिर्फ चार सप्ताह में सुलझा लेती है और वहाँ मजदूरों को न्यूनतम वेतन के नाम पर शोषण नहीं किया जाता है। पश्चिम बंगाल में चाय मजदूरों के साथ वेतन के रूप में ठगी चल रही है, इसका मजदूरों के समाज में गंभीर आर्थिक और सामाजिक असर हुआ है और मजदूरों के बॉडी मास इंडेक्स में इससे भारी परवर्तन हुआ है। मजदूरों के बीच आय की कमी से अन्य अनेक गंभीर समस्याएँ उभर कर आईं हैं। साक्षरता, स्वास्थ्य और सामाजिक विकास में इसका सीधा प्रभाव देखा जा सकता है।
यह बहुत ही शर्मनाक और दुखद है कि 20 बैठकें करके न्यूनतम मजदूरी के महत्वपूर्ण मुद्दा अनसुलझा है। यह देरी चाय श्रमिकों द्वारा सामना की जाने वाली मौजूदा आर्थिक कठिनाइयों को न सिर्फ बढ़ाती है, बल्कि उनके आर्थिक शोषण में सरकारी सहमति अपने आप स्पष्ट है। आर्थिक शोषण के कारण चाय श्रमिकों में व्यापक असंतोष है और वे चुनावों में लगातार सत्तारूढ़ दल के विरूद्ध मतदान करते रहे हैं। एक निश्चित न्यूनतम मजदूरी की कमी के कारण उनके वेतन के बारे में चल रही अनिश्चितता कार्यबल के भीतर अस्थिरता और हताशा की भावना में योगदान करती है, जो चाय उद्योग की उत्पादकता के लिए महत्वपूर्ण है। चाय उद्योग से जुड़े हजारों मजदूर कम वेतन के कारण चाय बागानों में कार्य करने के बदले दक्षिण भारत जाकर मजदूरी कर रहे हैं। इसका राज्य के चाय उत्पादकता पर असर पड़ रहा है। मजदूरों में एक आम धारणा प्रचलित हो गई है कि पश्चिम बंगाल के चाय बागानों में कार्य करने का मतलब है आर्थिक शोषण के चक्र में जानबुझ कर प्रवेश करना। वेतन के अलावा भी यहाँ मजदूरों को उनके लिए बने अन्य कल्याणकारी कानूनों का पूरी तरह से पालन नहीं होता है।
सरकार द्वारा हलिया बनायी गई समिति में भी पहले से ही समिति में मौजूद सदस्यों को रखा गया है। जाहिर है कि वे समिति में कोई नयी बात नहीं रखेंगे और राज्य सरकार को सौंपी गई अपनी पुरानी बातों को ही दोहराएँगे। फिलहाल सरकार के छह माही न्यूनतम वेतन नोटिफिकेशन और त्रिपक्षीय समझौते में मजदूर और प्रबंधन को दिए जाने वाला कुल दर को मिला कर मजदूरों को न्यूनतम 700 रूपये मजदूरी मिलना चाहिए। लेकिन ट्रेड यूनियन के नेताओं द्वारा इस अक्रियाशील समिति में अपने नामांकन को स्वीकृति देने से यह मुद्दा फिलहाल लटक जाएगा और फिलहाल इस पर तत्वरित ठोस निर्णय होने की कोई आशा नहीं है। इस बीच मजदूरों को आर्थिक रूप से वंचित करके कई अरब रूपये मालिक पक्ष बचा लेंगे।
इस तमाम कसरत से सरकार को कोर्ट में यह कहने का बहाना मिल जाएगा कि उसने मुद्दों को सुलझाने के लिए नयी समिति बनाई है और इसमें मजदूरों के प्रतिनिधियों ने शामिल होकर सरकारी नीतियों का समर्थन किया है। इस समिति को भी सरकार पहले की समिति की तरह विस्तार देते रहेगी और मजदूरों को न्यूनतम वेतन से वंचित रखने का कुचक्र मजदूरों के प्रतिनिधियों के समर्थन से चलते रहेगा। इसका एक ही रास्ता दिखाई देता है कि सरकार के टालमटोल रवैया से असहमत ट्रेड यूनियन इस मामले को लेकर पुनः उच्च न्यायालय जाए और सभी बातों से विस्तार से बता कर न्यायालय से न्याय मांगे, जैसे कि पश्चिम बंग खेत मजूर समिति ने किया है।
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