देशी उपनिवेशवाद का दंश झेल रहे हैं पश्चिम बंगाल और असम के चाय बागान मजदूर!
उपनिवेशवाद या Colonization किसी दूसरे देश या क्षेत्र को नियंत्रित करने और उसके लोगों और संसाधनों का शोषण करने की प्रथा है। आजाद भारत में पश्चिम बंगाल और असम के चाय बागान मजदूर भारतीय शासक वर्ग के उपनिवेश का दंश झेल रहे हैं और इसे कानूनी ढाँचे के तले बड़ी चालाकी से सुव्यवस्थित रूप से स्थापित किया गया है?
भारत में ब्रिटिश उपनिवेशवाद मुख्य रूप से वाणिज्य-व्यापार से प्रेरित था, जिसने उपनिवेश क्षेत्र के आर्थिक शोषण पर जोर दिया, ताकि उपनिवेश बनाने वाले राष्ट्र क्षेत्र यानी इंग्लैण्ड या अंग्रेज समाज को लाभ हो और वे सम्पन्नता की झील में तैर सकें। अंग्रेजों का उद्देश्य भारत के विशाल संसाधनों को नियंत्रित करना और इसकी अर्थव्यवस्था को वैश्विक पूंजीवादी व्यवस्था में एकीकृत करना था, जिसके कारण इस क्षेत्र पर महत्वपूर्ण राजनीतिक और सैन्य नियंत्रण स्थापित हुआ।
अंग्रेजों ने फूट डालो और राज करो की रणनीति लागू की, जिससे स्थानीय आबादी के बीच धार्मिक और जातीय तनाव बढ़ गया, जिससे उनके प्रभुत्व को बनाए रखने में मदद मिली। इस दृष्टिकोण ने न केवल प्रतिरोध को दबाने का काम किया, बल्कि ब्रिटेन के औद्योगिक विकास का समर्थन करने के लिए भारत के संसाधनों के दोहन की भी अनुमति दी, जिसने भारत को ब्रिटिश साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षाओं के व्यापक संदर्भ में एक महत्वपूर्ण संपत्ति के रूप में चिह्नित किया।
दूसरे देश के इत्तर भी किसी देश के अंदर ही पूँजीवादी व्यवस्था में इसके छोटे कई रूप भी होते हैं और किसी क्षेत्र और समाज विशेष को नियंत्रित करके उनके लोगों और संसाधनों का शोषण किया जाता है। जैसे उपनिवेशवादी व्यवस्था को सफलता दिलाने के लिए उपनिवेशवादी सरकारें नियम-कानून बनाती हैं। वैसे ही पूँजीवादी व्यवस्था में पूँजीपति अपने पूँजी के बल पर राजनीति और सत्तासीन लोगों को यूज करके शोषण के माध्यम को मजबूत बनाते हैं।
उपरोक्त विवरण को यदि आप स्थानीय पूँजीवादी उपनिवेशवादी शोषण चक्र के रूप में समझना चाहें तो अंग्रेजों की जगह ऐसे देशी पूँजीपतियों के नाम लिख सकते हैं, जो आपके स्थानीय समाज के संसधानों को लूट कर आपके परिवार और समाज को विभिन्न तरीकों से शोषण करके आपको कंगाल बना रहे हैं और खुद गैर कानूनी रूप से साधन सम्पन्न बन रहे हैं।
अपनी लूट को व्यवस्थित करने के लिए वे स्थानीय कानूनों को ढाल के रूप में प्रयोग कर रहे हैं और आपके सामूहिक प्रतिरोध को तोड़ने के लिए धर्म, जाति, भाषा और अन्य भिन्नता का प्रयोग करके आपकी मानसिक एकता को तोड़ रहे हैं।
ऐसी स्थानीय उपनिवेश के अंतर्गत एक देश के अंदर ही तमाम कानून और नैतिकता के होते हुए भी राष्ट्रीय नियम कानूनों से अन्जान और जागरूकहीन कमगारों और संसाधनों का शोषण होता है और पूँजीवादी व्यवस्था में इसके लिए खुद सरकार आगे बढ़ कर पूँजीपतियों की सुविधा के लिए नियम कानून बनाती है। ऐसा तब होता है जब पूँजीवादी व्यवस्था में एक क्षेत्र और समाज को आर्थिक उपनिवेश बनाया जाता है। ऐसे उपनिवेश को बनाने के लिए कानून और संविधान का आड़ लिया जाता है।
Check the prices at Amazon.in
चाय उद्योग में हाल तक तकनीकी का इस्तेमाल बहुत कम हुआ था। कलम और खुलनी के लिए अब तकनीकी का इस्तेमाल किया जा रहा है। तथापि इस उद्योग को चलाने, भारी मुनाफा कमाने के लिए सस्ते मजदूर एक अनिवार्य कारक है।
इसीलिए स्वतंत्र भारत में चाय मजदूरों के शोषण में सीधा या परोक्ष रूप से सरकार, राजनैतिक पार्टी और नेतागणों का नापाक गठजोड काम करता रहा है।
उनका गठजोड़ ऐन केन प्रकारेण सस्ते मजदूर की आपूर्ति को बनाए रखने के लिए चाय बागानों में कार्य करने वाले समाज को पिछड़ा, गरीब और अनपढ़ बनाए रखने के लिए कुचक्र चलाता रहा।
पश्चिम बंगाल और असम के चाय अंचल भारतीय पूँजीपतियों, राजनैतिक नेताओं और व्यवस्था के द्वारा किया जाने वाला एक ऐसा उपनिवेश बन गया है, जहाँ कामगारों, मजदूरों का बड़े नियोजित ढंग से आर्थिक शोषण किया जा रहा है।
इस शोषण में संविधान और कानून में दिए गए तमाम शोषण विरोधी प्रावधानों को ताक पर उठा कर निर्लज्जता के साथ उनका आर्थिक और सामाजिक शोषण देश की आजादी के पूर्व और इसके बाद में भी बद्दस्तूर जारी है। यहाँ का शोषण एक ओपन सिक्रेट बन गया है और इस उपनिवेश के शोषकवादी शक्तियों को किसी लाज-शर्म या नैतिकता का कोई डर नहीं है।
अंग्रेजों के जमाने में चाय मजदूरों का जितना शोषण होता था, उससे अधिक शोषण आजाद भारत के तमाम संरक्षणवादी कानूनों के रहते भी हो रहा है। चाय मजदूरों के शोषण में पश्चिम बंगाल और असम का राज्य सरकार अग्रणी भूमिका निभाता रहा है, वहीं इसे केन्द्रीय सरकार का भी परोक्ष समर्थन हासिल है।
आजाद भारत के उपनिवेशवादी शोषक तत्वों का गठजोड़ जानबुझ कर चाय मजदूरों को पिछड़ा बनाए रखने के लिए आजादी के पचास वर्षों तक शिक्षा व्यवस्था को लाचार और कुव्यवस्थित बनाए रखा, ताकि मजदूरों के बच्चों को शिक्षा लेने से हतोत्साहित किया जा सके और चाय बागानों के लिए अबाध रूप से सस्ते मजदूर की आपूर्ति को बनाए रखा जा सके।
सरकार और इनका अमला इस बात से प्रेरित रहा था कि यदि इन्हें शिक्षित और विकासित होने का मौका दिया जाए तो ये चाय बागानों में नाम मात्र के मजदूरी पर कार्य नहीं करेंगे और इससे चाय के लागत में वृद्धि होगी और देश सस्ते चाय के निर्यात में पिछड़ जाएगा। इसका एक दूसरा कारण यह था कि भारतीय जाति व्यवस्था की मानसिकता में चाय उद्योग में कार्य करने वाले पिछड़ी जातियों का समूह था और वे स्थानीय राज्य के भाषा संस्कृति के अनुयायी नहीं थे। जातिवादी मानसिकता के कारण राज्य के शासन व्यवस्था, जिनमें उच्च जातियों का अभी भी बोलबाला है, चाय बागान के समाज को आगे बढ़ने के लिए उपयुक्त अवसर देने के इच्छुक नहीं थे। आज भी कमोबेश यही स्थिति है।
आज भी उन्हें गरीब और पिछड़ा बनाए रखने के लिए उन्हें न्यूनतम वेतन से वंचित रखा गया है और उन्हें नियोजित ढंग से गरीब और मजबूर बना कर रखा गया है, ताकि चाय उद्योग को सस्ते मजदूरों की आपूर्ति को बनाए रखा जा सके। उन्हें अशिक्षित बनाए रखने और न्यूनतम वेतन और कम सुविधाओं में कार्य करने के लिए एक ऐसी त्रिपक्षीय एग्रीमेंट्स के खोल का सहारा लिया जाता रहा है, जिसका कोई कानूनी, संवैधानिक और नैतिक आधार नहीं है।
पूरे राज्य के मजदूरों को Minimum Wage Act 1948 के तहत रखा गया, लेकिन चाय मजदूरों को आजादी के 78 वर्ष के बाद भी न्यूनतम वेतन नोटिफिकेशन से अलग रखा गया और उन्हें न्यूनतम वेतन से वंचित रखा गया है। उनकी फटेहाल, गरीबी की दशा, दशकों के शोषण से Body Mass Index (BMI) में हुए परिवर्तन, अत्यंत कम साक्षर दर आदि कानून को धता कर हो रहे निर्लज्ज उपनिवेश की महागाथा कहती रही है।
स्वतंत्र के बाद सभी उद्योग क्षेत्र के विकास के लिए उसके कर्मचारियों के सामाजिक, शैक्षिक और आर्थिक विकास को एक अनिवार्य अंग माना गया। लेकिन चाय क्षेत्र के मजदूरों को सभी क्षेत्र में कमजोर करने का कोई मौका नहीं छोड़ा गया। चाय बागान को भारत के राज्यों के अंदर ही उपनिवेश बनाया गया है और चाय मजदूरों को नियंत्रित करने के लिए सभी तरह के उपायों को आजमाया जाता रहा है। हाथी के दाँत की तरह दिखाने के लिए यहाँ The Plantation Labour Act 1951, Provident Fund, Gratuity Act, Health Scheme, Factory Act, Shops and Establishment Act आदि लागू है, लेकिन यहाँ किसी भी एक्ट को उनकी आत्म के साथ लागू नहीं किया जाता है।
2000 से 2024 तक हर साल यहाँ भूख, बीमारी के शिकार हुए लोगों के बारे अखबारों में खबरें प्रकाशित होती रहीं है। बागान मालिक न तो ठीक से वेतन देते हैं और न ही कानूनों में उल्लेखित नागरिक सुविधाएँ। वे लगातार कानून का उल्लंघन करते रहते हैं, लेकिन राज्य सरकारें कभी भी कानून का पालन करना सुनिश्चित नहीं करती है। चाय बागानों में नकली डाक्टरों, नर्स, कम्पाण्डर आदि की नियुक्ति सरे आम की जाती है, लेकिन श्रम मंत्रालय और विभाग आंखें बंद करके इन पर कोई कार्रवाई नहीं करते हैं।
इन मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी न देना और नाममात्र मजदूरी में आठ दस घंटे कार्य कराना, 48 घंटे कार्य के बाद साप्ताहिक अवकाश का वेतन न देना, चाय बागान क्षेत्र में घटिया शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा को बनाए रखना, उनके कल्याण के लिए बनाए गए अधिनियम यथा प्लानटेशन लेबर एक्ट, पीएफ, ग्रेज्युएटी आदि का सरकार द्वारा जानबुझ कर उचित रूप से लागू न करना या परोक्ष रूप से इन कानूनों को निष्प्रभावी रखना, उनके लेबर डिपार्टमेंट द्वारा इनके उल्लंघन के लिए कोई दंडात्मक कार्रवाई न करना, उनके स्थायी घर, संस्कृति और सामाजिक तानाबाना को राज्य की भाषाई और संस्कृति में ढलने के लिए सरकारी नीति बनाना, उनके सामाजिक अस्तित्व को नेस्तानुबाद करना ही है। ये तमाम उपाय, नीतियाँ उपनिवेशवादी नियंत्रण और शोषण के चक्र को बनाए रख कर उसे अधिक प्रभावी बनाए रखने का हिस्सा रहा है।
चाय मजदूरों को आज (दिसंबर 2024) 250 रूपये मजदूरी दी जाती है। यह न्यूनतम अधिनियम 1948 के द्वारा तय होने वाला मजदूरी नहीं है, बल्कि राजनैतिक पार्टियों, जिसमें सत्ताधारी पार्टी की मुख्य भूमिका होती है, सरकार, बागान मालिकों और पूँजीपतियों से मिले हुए ट्रेड यूनियन के कुछ चुनिंदा लोगों का गठजोड़ से तथाकथित रूप से Agreed एग्रीमेंट होता है। मजदूरों को हर तीन वर्षीय एग्रीमेंट हस्ताक्षर करने के पूर्व महंगाई भत्ता देने की बातें की जाती हैं, लेकिन शोषक बने यह गठजोड़ कभी भी उन्हें महंगाई भत्ता नहीं देती है। 250 रूपये का दैनिक मजदूरी दूसरे तमाम उद्योग क्षेत्रों से सबसे कम है, लेकिन जब राज्य सरकार ने 18 रूपये वृद्धि करने का नोटिस निकाला तो चाय बागानों के कुछ मालिक संघ कोर्ट में इसे चैलेंज कर दिया।
जब कोर्ट ने देखा कि उन्हें एक तो न्यूनतम वेतन अधिनियम से बहुत कम मजदूरी दी जा रही है, तो उन्होंन न सिर्फ 18 रूपये वृद्धि को उचित ठहराया, बल्कि राज्य सरकार को छह महीने के भीतर न्यूनतम वेतन दर निश्चित करने का आदेश दिया।
लेकिन राज्य सरकार ने कोर्ट का आदेश के अनुसार न तो न्यूनतम दर निश्चित किया और न ही उन्हें न्यूनतम वेतन देने का कोई उपक्रम किया। जब कोर्ट को इस बारे बताया गया तो कोर्ट ने फिर से उन्हें आदेश दिया कि वह डेढ़ महीने में न्यूनतम वेतन दें। लेकिन राज्य सरकार ने फिर से इस बात की अनसूनी की और एक वर्ष बीत जाने के बावजूद आज भी मजदूरों को न्यूनतम वेतन नहीं दिया जा रहा है। कोर्ट के आदेश को दरकिनार करने के लिए नौ साल पूरानी न्यूनतम वेतन सलाहकार समिति का पुनर्जगठन कर दिया। इसका विरोध न कोई राजनैतिक पार्टी ने किया और न कोई ट्रेड यूनियन। देश में चाय मजदूरों को कोर्ट के आदेश के बाद भी न्यूनतम वेतन दर नहीं मिलता है तो इसके लिए संविधान और कानून से संचालित व्यवस्था ही है। जिसे राजनैतिक पार्टियाँ और संविधान चला रहा है। क्या चाय मजदूर किसी उपनिवेश के तहत बनाए गए नागरिक हैं. जिन्हें संविधान में उल्लेखित मौलिक अधिकारों से वंचित करने का लगातार कोशिश की जा रही हैं?
कोर्ट में लटके हुए मामले पर चाय बागानों में कार्यकर दो दर्जन से अधिक ट्रेड यूनियन कोर्ट में जाकर इन बातों से कोर्ट को अवगत कराता, लेकिन चाय बागानों के शोषक तत्व इतने मजबूत हैं कि कोई भी ट्रेड यूनियन अपने इस कानूनी हक का उपयोग करने के लिए आगे नहीं आया।
फिलहाल मजदूरों को साल में 72 हजार रूपये ही वेतन मिलता है, लेकिन बागान मैनेजरों को 20 से 50 लाख रूपये तक वार्षिक वेतन दिया जाता है। जब चाय बागान के मालिक डायरेक्टर बने होते हैं तो उन्हें प्रति वर्ष 1 करोड़ रूपये तक का वेतन मिलता है। लेकिन यही मालिकों को मजदूरों के 18 रूपये की दैनिक वृद्धि से मतली सी आती है और वे कोर्ट जाने में देर नहीं करते हैं। यदि मजदूर एक दिन की हड़ताल कर देते हैं तो चाय बागान को एक फुटी कौड़ी का आय नहीं होता है। जिनके कंधे पर पूरे चाय उद्योग का पूरा दरोमदार है, उसे ही कानून को धता बता कर शोषित और वंचित किया जा रहा है।
पश्चिम बंगाल में अधिकतर चाय बागान 1865 के बाद बने हैं। सबसे हालिया बागान भी 1832 में स्थापित किया गया। 1865 ले लगातार चाय बागानों में कार्य करने वालों को वास स्थान यानी होमस्टिड जमीन का कोई अधिकार नहीं है, और वे कानूनी रूप से डेढ़ सौ साल एक जगह रहते हुए भी भूमिहीन हैं। जबकि Adverse Possession नियमों के तहत भारतीय व्यक्ति प्राईवेट लैंड के मामले में लगातार 12 वर्ष और सरकारी जमीन के मामले में 30 वर्ष रहने पर उस जमीन की मालिकाना हक का अधिकार पाने का पात्र बन जाता है। लेकिन चाय मजदूरों को इन कानूनों के रहने के बावजूद सरकार भूमिहीन कहती है और उनके अपने दशकों आवासीय जमीन के खतियान यानी भूमि अधिकार की मांग को नजरांदाज करती रही है।
बगानियार जिस जमीन पर रहते हैं, आजादी के पूर्व वह उनके पूर्वजों की थी, जिसे प्लान्टेशन लेबर एक्ट के तहत क्वार्टर बनाने के लिए सरकार द्वारा 1953 में अधिग्रहित कर ली गई थी और उन्हें 30 वर्ष के लीज यानी पट्टे पर चाय बागान कंपनियों को दे दी गई थी। नियमानुसार बगानियारों को अधिग्रहण के बाद मुआवजा मिलना था, लेकिन वह कभी नहीं दिया गया। आज बगानियार यानी चाय मजदूर उसी जमीन को वापस मांग रहे हैं, लेकिन सरकार उन्हें यह कतई देना नहीं चाहती है।
चाय कंपनियों का कहना है कि यदि उन्हें भूमि दे दिया जाएगा तो उन्हें चाय बागानों में कार्य करने के लिए मजबूर करना असंभव हो जाएगा। उन्हें चाय बागानों में कार्य करने के लिए विवश बनाए रखने के लिए ही उन्हें न्यूनतम वेतन नहीं दिया जाता है। एक ओर तो सरकार मजदूरों को डेढ़ सौ साल से एक जगह रहने पर भी मजदूरों को उस जमीन का खतियन देना नहीं चाहती है, और पट्टा में 5 डेसीमल जमीन देने का प्रस्ताव दे कर उसे जबरदस्ती मजदूरों पर थोपा जा रहा है।
यह 5डेसीमल जमीन सिर्फ Heritable है साथ ही Non Transferable भी है, अर्थात् उस छोटे से जमीन पर चाय मजदूरों को सिर्फ रहने का अधिकार होगा, भूमि अधिकार का नहीं। भूमि सरकारी बना रहेगा, और सरकार शर्तों के उल्लंघन पर कभी भी उन्हें बेदखल कर सकती है। लेकिन यही सरकार दूसरी ओर दो तीन साल पूर्व चाय बागानों में आने वाली कंपनियों को एकमुश्त Transferable भूमि खरीदने के लिए नियम बना रही है और उन्हें चाय बागानों में 450 बीघा जमीन में चाय के अतिरिक्त अन्य वाणिज्यिक और व्यापारिक कार्यकलाप करने की अनुमति दे दी है।
सरकार नेताओं के छद्म नामों के कंपनियों को एक मुश्त भूमि खरीदने की अनुमति देने के लिए तैयार बैठी है, लेकिन वह बगानियारों को उनकी वासस्थान की पूरी जमीन को transfeable Condition में देना नहीं चाहती है, क्योंकि वे बड़े-बड़े भूमि पर बसे हुए हैं और जमीन का पूरा अधिकार मिल जाने पर वे उनके सहारे आर्थिक स्वावलंबन प्राप्त कर सकते हैं और चाय बागानों में कार्य करने की मजबूरी से मुक्त हो सकते हैं। यहाँ राज्य सरकार संविधान से संचालित नहीं होकर चाय बागानों के मालिकों के स्वार्थ की रक्षा करने की भावना से संचालित हो रहा है और अपने ही देश के नागरिकों पर उपनिवेश नीतियों के सहारे शोषण करने पर अड़ी हुई है।
सरकार बगानियारों को उसके बड़े भूमि के बदले कानूनी रूप से सिर्फ 5 डेसीमल जमीन देना चाहती है, ताकि वे आर्थिक स्वावलंबन के नजदीक भी न पहुँच सकें और आर्थिक रूप से गरीब रह कर कम मजदूरी में चाय बागानों में कार्य करते रहें।
आज कानूनी रूप से चाय बागान के मजदूर बस्ती की जमीन सरकारी जमीन है और उस पर चाय बागान कंपनी का लीज अधिकार है। ये चाय कंपनियाँ चाय बगानियारों को अच्छे मकान में रहने देना नहीं देना चाहती है। यदि वे अपने खर्च से अपने क्वार्टरों में कोई कमरा, दुकान या कोई अन्य निर्माण करते हैं तो ये कंपनियाँ उन्हें ऐसा करने से मना करती हैं और उन्हें कार्य से निकाल देती है और वास स्थान की जगह को खाली करने का आदेश निकालती है। बगानियारों के द्वारा अपने जरूरत के मुताबिक घर में परिवर्तन करने पर उनके साथ कंपनियों द्वारा वहशीपन दिखाना एक स्वतंत्र देश में परतंत्र नीति का महौल लागू होने का ज्वलंत सबूत है।
तमाम कानूनों के उल्लंघन कर्ता कंपनियों के विरूद्ध में राज्य सरकार के द्वारा किसी भी तरह का कोई कार्रवाई नहीं करना चाय अंचल के उपनिवेश होने के विचारों को पुख्ता करता है। चाय मजदूरों के सौ करोड़ से अधिक रूपये मालिकों के घपलेबाजी में फंसे हुआ है और मजदूर अपने खून पसीने की कमाई से वंचित हैं, लेकिन राज्य सरकार तमाम कानूनों के रहते हुए भी इन कंपनियों के विरूद्ध कोई कार्रवाई करना नहीं चाहती है। अंग्रेज सरकार भी भारत में अपने जालिम प्रशासन पर किसी भी नियम के उल्लंघन पर कोई कार्रवाई नहीं करती थी, क्योंकि तब भारत उसका उपनिवेश था।
पश्चिम बंगाल का श्रम दफ्तर भी तमाम कानूनों के उल्लंघन पर चाय कंपनियों पर कोई कार्रवाई नहीं करती है, क्योंकि पश्चिम बंगाल का चाय अंचल कोलकाता नामक देश का उपनिवेश है और इस उपनिवेश का अधिकतम आर्थिक, सामाजिक और मनोवैज्ञानिक शोषण करने के लिए पश्चिम बंगाल नामक देश का प्रभुवर्ग साम दाम दंड भेद की नीतियों को अपनाता रहा है। पश्चिम बंगाल में जनता को साम्प्रदायिकता के आधार पर बाँटने के लिए सरकार कुछ समुदायों को थोक के भाव में सांस्कृतिक विकास बोर्ड बाँट दे रही है, लेकिन कुछ समुदायों को सिर्फ अंगुठा दिखा देती है।
चाहे वह बंगला को अनिवार्य बना कर हिन्दी और अंग्रेजी शिक्षितो के रोजगार अधिकार को छीनना और उन्हें बेरोजगार रहने के लिए विवश करना या उन पर बंगला भाषा को थोपना या छोटी-छोटी नौकरी के लिए भी उन्हें अयोग्य बताना और जम कर एसटी नकली सर्टिफिकेट जारी कर असली समाज को आर्थिक और सामाजिक नुकसान पहुँचाना, उनके जमीन की लूट पर अंधा बन कर रहना आदि उपनिवेश को मजबूत करने का कार्य ही है।
एक बहुभाषी समाज में पढ़ाई, रोजगार के लिए बंग्ला भाषा को अनिवार्य बना कर हिन्दी और अंग्रेजी पढ़ने वालों के साथ संवैधांनिक, कानूनी और सामाजिक आघात पहुँचाने का लक्ष्य यही कहता है कि पश्चिम बंगाल का चाय अंचल कोलकाता नामक शोषक देश का उपनिवेश है और यहाँ के समाज और संसाधनों का शोषण करके भारी मुनाफा कमाना उनका मुख्य ध्येय है।
पश्चिम बंगाल में बनाए गए इस उपनिवेॆश को अलग राज्य बना कर ही समाप्त किया जा सकता है और लोकतांत्रिक तरीके से इस उपनिवेश से स्वतंत्र होने का बगानियारों को जन्म सिद्ध अधिकार है।
Share this content:
Post Comment