कोटा के भीतर कोटा’ फैसले की समीक्षा याचिका को सुप्रीम कोर्ट ने किया खारिज
एससी और एसटी वर्ग के ‘कोटा के भीतर कोटा’ प्रदान करने के लिए उप-वर्गीकरण पर अपने फैसले के खिलाफ प्रस्तुत समीक्षा याचिका को भारत के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली सात न्यायाधीशों की सुप्रीम कोर्ट के संविधान पीठ ने किया खारिज। भारत के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) डीवाई चंद्रचूड़ की सात न्यायाधीशों की संविधान पीठ जिसमें जस्टिस बीआर गवई, विक्रम नाथ, बेला एम त्रिवेदी, पंकज मिथल, मनोज मिश्रा और सतीश चंद्र शर्मा शामिल थे, का मानना था कि याचिकाकर्ताओं द्वारा समीक्षा का कोई मामला नहीं बनाया गया था।
1 अगस्त को, संविधान पीठ ने ईवी चिन्नैया बनाम आंध्र प्रदेश राज्य के 2005 के फैसले को खारिज कर दिया था, जिसमें कहा गया था कि एससी/एसटी का उप-वर्गीकरण संविधान के अनुच्छेद 341 के विपरीत है, जो राष्ट्रपति को एससी/एसटी की सूची तैयार करने का अधिकार देता है।
संविधान पीठ ने अपने बहुमत के फैसले में कहा था, “एससी/एसटी के सदस्य अक्सर व्यवस्थागत भेदभाव के कारण सीढ़ी पर चढ़ने में सक्षम नहीं होते हैं। अनुच्छेद 14 जाति के उप-वर्गीकरण की अनुमति देता है। न्यायालय को यह जांचना चाहिए कि क्या कोई वर्ग समरूप है या नहीं और किसी उद्देश्य के लिए एकीकृत नहीं किए गए वर्ग को आगे वर्गीकृत किया जा सकता है।” न्यायालय ने कहा कि ऐतिहासिक साक्ष्य और सामाजिक मानदंड स्पष्ट रूप से दर्शाते हैं कि सभी एससी/एसटी एक समरूप वर्ग नहीं हैं। इस प्रकार, राज्यों द्वारा एससी/एसटी का उप-वर्गीकरण अनुच्छेद 341 का उल्लंघन नहीं होगा, पीठ ने बहुमत ने फैसला सुनाया था। न्यायमूर्ति बेला त्रिवेदी ने बहुमत से असहमति जताते हुए फैसला सुनाया था कि इस तरह का उप-वर्गीकरण स्वीकार्य नहीं है। उल्लेखनीय रूप से, बहुमत ने यह भी स्पष्ट किया कि जब कोई राज्य एससी/एसटी का उप-वर्गीकरण करता है, तो उसे अनुभवजन्य आंकड़ों द्वारा समर्थित होना चाहिए और यह सनक या राजनीतिक उद्देश्यों को पूरा करने के आधार पर नहीं होना चाहिए।
इस फैसले ने देश में आरक्षण के मुद्दे को पुनः एक संवेदनशील राजनैतिक मुद्दे में बदल दिया था और इसके विरूद्ध कुछ एससी एसटी ग्रुप्स ने 21 अगस्त को भारत बंद बुलाया था, जिसे की राज्यों में पूरी तरह सफल बताया गया था। बंद बुलाने वाले सामाजिक संगठनों ने सरकार को चेतावनी देते हुए बयान जारी किया था कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले को उलटने के लिए यदि शीतकालीन सत्र में विशेष कोटा कानून पारित नहीं हुआ तो भारत बंद से भी बड़ा आंदोलन किया जाएगा। कुछ सामाजिक संगठनों ने फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में समीक्षा याचिका दायर करने की घोषणा की थी। इसी क्रम में सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिका को सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने हाल ही में खारिज कर दिया। प्रासंगिक रूप से, पीठ के सात न्यायाधीशों में से चार – न्यायमूर्ति बीआर गवई, विक्रम नाथ, पंकज मिथल और सतीश चंद्र शर्मा – ने एससी/एसटी श्रेणी के बीच क्रीमी लेयर की पहचान करने का भी आह्वान किया था ताकि उन्हें आरक्षण के दायरे से बाहर किया जा सके। निष्कर्ष में, खंडपीठ के बहुमत ने पंजाब, तमिलनाडु और अन्य राज्यों में एससी/एसटी समुदायों के उप-वर्गीकरण को सक्षम करने वाले कानूनों की वैधता को बरकरार रखा था।
भारत में आरक्षण सकारात्मक कार्रवाई की एक प्रणाली, जिसका उद्देश्य विभिन्न क्षेत्रों में ऐतिहासिक रूप से वंचित समूहों के लिए प्रतिनिधित्व में सुधार करना है। इसका मुख्य उद्देश्य सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े नागरिकों के लिए शिक्षा, रोजगार, सरकारी योजनाओं, छात्रवृत्ति और राजनीति में प्रतिनिधित्व प्रदान करना है।
अनुसूचित जाति (एससी) और अनुसूचित जनजाति (एसटी) आरक्षण के पृथक्करण और विभाजन के संबंध में समीक्षा आवेदन को खारिज करने के भारत के सर्वोच्च न्यायालय के हालिया फैसले का राज्य सरकारों पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ेगा। इस फैसले के आलोक में वे क्या कर सकते हैं? इस फैसले के कई मायने हो सकत हैं।
सुप्रीम कोर्ट का फैसला एससी और एसटी श्रेणियों के भीतर उप-वर्गीकरण की अनुमति देता है, जिसका अर्थ है कि राज्य इन श्रेणियों के भीतर विभिन्न समूहों के बीच असमानताओं को दूर करने के उद्देश्य से उप-कोटा बना सकते हैं। यह पहले के फैसलों से एक बदलाव था जिसमें एससी और एसटी को एक समरूप समूह के रूप में माना जाता था, इस प्रकार कम प्रतिनिधित्व वाले समुदायों को लाभ पहुंचाने के लिए अधिक अनुरूप आरक्षण नीतियों की अनुमति दी गई है। ।
राज्य सरकारें इस फैसले को प्रभावी ढंग से लागू करने के लिए कई कदम उठा सकती हैं। सरकारें विभिन्न अध्ययनों के द्वारा समुदायों की जरूरतों का आकलन कर सकती है। एससी और एसटी के भीतर कौन से उप-समूह शिक्षा और रोजगार में कम प्रतिनिधित्व वाले हैं, इसकी पहचान करने के लिए व्यापक अध्ययन करने के लिए योजनाएँ बना सकती हैं। किसी भी नई आरक्षण नीतियों को सही ठहराने के लिए यह डेटा महत्वपूर्ण होगा। उप-वर्गीकरण वर्गों के सामाजिक विकास के लिए नई नीतियाँ विकसित कर सकती हैं। राज्य सरकारें ऐसी नीतियाँ बना सकती हैं, जो सामाजिक-आर्थिक स्थिति, शैक्षिक प्राप्ति और अन्य प्रासंगिक मानदंडों के आधार पर इन श्रेणियों में सबसे वंचित समूहों के लिए लाभों को प्राथमिकता देने में मदद मिल सकती है। राज्य सरकारें अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के लिए इस्तेमाल की जाने वाली क्रीमी लेयर अवधारणा को एससी एसटी आरक्षण प्रक्रिया में भी लागू कर सकती हैं। इससे अधिक संपन्न व्यक्तियों को आरक्षण लाभों से बाहर रख सकती है, ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि सहायता उन लोगों तक पहुँचे जो वास्तव में वंचित हैं।
भारत में एससी एसटी आरक्षण एक जटिल मुद्दा बन गया है। अनुसूचित जातियों (एससी) और अनुसूचित जनजातियों (एसटी) को उप-वर्गीकृत करने की सुप्रीम कोर्ट के द्वारा दी गई अनुमति के बाद आरक्षित वर्गों के बीच की आंतरिक प्रतिस्पर्धा में पिछड़ गए कई समुदायों में आशा बंधी है कि उप-वर्गीकरण के बाद उनके समुदाय को आरक्षण का लाभ मिल सकती है। वहीं शैक्षणिक और आर्थिक रूप से कुछ आगे बढ़े समुदायों के सामाजिक संगठनों में नये वर्गीकरण से खुद को वंचित हो जाने की आशंका और डर भी घर कर गई है। वे इसे समाज को बाँटने और विशिष्ट योग्यता वाले आरक्षित पदों को Not Found Suitable करके आरक्षण से पदों को बाहर रखने का ब्राह्मणवादी रणनीति भी बता रहे हैं। कुछ राजनैतिक संगठन इसे पिछड़े समाज के राजनैतिक एकता को तोड़ने और उन्हें कमजोर बनाने की चाल भी बता रहे हैं।
सरकार को इन तमाम आशंकाओं का भी समाधान करना चाहिए और किसी भी पिछड़े समुदाय के साथ होने वाले संभावित अन्याय, भेदभाव को न्यूनतम करने के लिए नियम और शर्तें बनानी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट के नये निर्देश को कार्यान्वित करने के पहले तमाम एससी एसटी समुदायों का सटीक आंकड़े जुटाने, उसका अध्ययन करने और विशेषज्ञों की टीम से उस पर निष्कर्ष निकलवाने की जरूरत है। किसी भी नये कदम उठाने या कानून बनाने के पूर्व सरकार को पारदर्शिता सुनिश्चित करना होगा और तमाम चिंताओं का समाधान करना होगा। उप-वर्गीकरण की प्रक्रिया पारदर्शी और समावेशी होनी चाहिए। सरकार को सभी एससी/एसटी समूहों के साथ उनकी चिंताओं का समाधान करने के लिए परामर्श करना चाहिए। यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि यह एक जटिल मुद्दा है और उप-वर्गीकरण के आधे-अधूरे मन से तैयार किए गए कार्यान्वयन नीतियाँ सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक और राजनैतिक सहित कानूनी चुनौतियाँ प्रस्तुत करेंगी।
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