चाय बागानों की बर्बादी के लिए राज्य सरकार है जिम्मेदार!
पश्चिम बंगाल का चाय उद्योग अधोगति की ओर जा रहा है और चाय उद्योग की बर्बादी के लिए राज्य सरकार की नीतियाँ ही जिम्मेदार है। सरकारी नीतियों के कारण चाय बागान क्षेत्र बहुत अशांत हो गया है और यह शोषक नीतियों के विरूद्ध में आंदोलन का देश बन गया है। एक उद्योग से सृजित आशा की भावना के विपरीत यहाँ बगानियारों में निराशा भरती जा रही है। लोगों का भरोसा राज्य की नीतियों से उठता जा रहा है। राज्य के श्रम विभाग की गैर जिम्मेदाराना व्यवहार, बेरूखी और लापरवाही से चाय अंचल में जितने आंदोलन चल रहे हैं, वह जलवायु परिवर्तन से उभर आए चुनौतियों से भी बड़ी चुनौति बन कर सामने आ रही है। इसका चाय के उत्पादन में गंभीर असर हुआ है। लेकिन राजनैतिक नेतृत्व मानवीयता के साथ इसे सुलझाने में अब तक तत्पर नज़र नहीं आ रही है।
टी बोर्ड के हालिया आंकड़ों के अनुसार, पश्चिम बंगाल में चाय उत्पादन में पिछले तीन वर्षों में उल्लेखनीय गिरावट देखी गई है, 2024 के पहले सात महीनों में पिछले वर्ष की तुलना में लगभग 20.8% की गिरावट आई है, उत्पादन 190 मिलियन किलोग्राम से घटकर 150 मिलियन किलोग्राम रह गया है; इस गिरावट को हाल के दिनों में सबसे तेज गिरावटों में से एक माना जा रहा है। इस तेज गिरावट के कई कारणों में जलवायु परिवर्तन भी एक है। जिस पर किसी का वश नहीं है। लेकिन उद्योग की अधोगति के लिए मानवीय कारणों की पड़ताल की जाए तो इसके लिए पश्चिम बंगाल की सरकार और उसकी नीतियाँ ही मुख्य रूप से जिम्मेदार बन कर सामने आ रही हैं।
कोई भी उद्योग बड़े पैमाने पर समाज के लिए आर्थिक विकास और धन सृजन को बढ़ावा देता है। नये अवसर और नौकरी सृजन करता और गरीबी को सीधे कम करके जीवन स्तर में सुधार लाता है। जिससे सामाजिक असमानता दूर होती है और सामाजिक समस्याओं को चुनौतियाँ मिलती है और समग्र समाज का कल्याण करता है। जब उद्योग सामाजिक विकास में मूल्यवान योगदान देता है तो वह सार्थक उद्योग कहलाता है और उसे विकास का इंजन भी समझा जाता है। लेकिन पश्चिम बंगाल में चाय उद्योग समाज विकास करने के बजाय यह समाज बर्बाद का कार्य कर रहा है। यहाँ धन सृजन के बदले गरीबी, अशिक्षा, निराश और बर्बादी का सृजन हो रहा है। यहाँ बगानियारों को न्यूनतम वेतन, भूमि अधिकार से न सिर्फ वंचित करके रखा जा रहा है, बल्कि उनके पास के न्यूनतम भूमि को भी नये सरकारी नीतियाँ बना कर लूटने की कोशिश की जा रही है। संगठित समाज को सरकार समर्थित शोषक नीतियाँ कैसे बर्बाद करती हैं, उसे देखने के लिए बंगाल के चाय बागानों को देखना, अध्ययन करना ही काफी है। यहाँ सरकार द्वारा सृजित नीतियाँ बागान से जुड़े लोगों को आबाद करने के बजाय बर्बाद कर रही है और इस बर्बादी को रूलिंग क्लास यानी चाय बागान के मालिक, सरकार और दलाल नेतागण चाय बागान का विकास कहता है।
चाय उद्योग चाय पौधे की पत्तियाँ, उच्चतर स्तर से बने क्वालिटी चाय उत्पादन के बल पर संचालित होते है। चाय पत्तियों का उत्पादन जलवायु परिवर्तन की मार झेल रहा है। असम राज्य में भी उत्पादन में भारी गिरावट आई है। टी बोर्ड के आंकड़ों के आंकड़ों पर ही बात की जाए तो पिछले तीन वर्षों में असम के चाय उत्पादन में गिरावट देखी गई है। हाल ही में आई रिपोर्टों में कम वर्षा जैसे कारकों के कारण उत्पादन में लगभग 40% की संभावित गिरावट का संकेत दिया गया है
लब्बोलुआब यही है कि असम में जहाँ 10.5 लाख बगानियार काम करते हैं, जहाँ उत्पादन में 40% की गिरावट आई है वहाँ सरकारी रवैये और जागरूकता के कारण श्रमिकों को 40% बोनस मिलता है और सभी श्रमिक नियमित कार्य करके राज्य के उत्पादन में अपना योगदान दे रहे हैं। वहीं सिर्फ 20% उत्पादन की गिरावट वाले पश्चिम बंगाल में श्रमिक 16% बोनस निर्णय से अपना काम छोड़ कर सड़कों पर उतर कर आंदोलन करने के लिए मजबूर हैं। जाहिर है कि इसका सीधा असर बारिश के मौसम में पत्तियों के आमद में पड़ेगा। राज्य सरकार की अदूरदर्शी, लापरवाही और मजदूर विरोधी नीतियों के कारण राज्य के चाय उत्पादन पर न सिर्फ असर पड़ रहा है, बल्कि इन नीतियों से चाय उद्योग से जुड़े हुए लोग भी बर्बाद हो रहे हैं और नीतियों की अमानवीय प्रभाव से राज्य के चाय उद्योग खत्म होने के रास्ते पर अग्रसर हो रहा है। ऐसा लगता है राज्य में चाय उद्योग के श्रम विभाग का कार्य सिर्फ द्विपक्षीय वार्ता करवाना ही रह गया है। उसे चाय से जुडे समाज और बगानियारों की कोई चिंता नहीं है। असम राज्य भी जलवायु परिवर्तन की मार झेल रही है, और वहाँ भी उत्पादन में भारी गिरावट आई है। लेकिन वहाँ बोनस जैसे श्रमिकों के आय तंत्र पर सरकार अमानवीय नीतियों को बढ़ावा नहीं दे रही है। असम में सरकार बोनस पर मालिकों को दबाव डाल कर सर्वाधिक भुगतान करवाता है। लेकिन पश्चिम बंगाल में बोनस समझौतों में सरकार की कोई भूमिका कहीं नज़र नहीं आती है।
टी बोर्ड के आंकड़ों के आंकड़ों पर ही बात की जाए तो पिछले तीन वर्षों में असम के चाय उत्पादन में गिरावट देखी गई है, हाल ही में आई रिपोर्टों में कम वर्षा जैसे कारकों के कारण उत्पादन में लगभग 40% की संभावित गिरावट का संकेत दिया गया है। लब्बोलुआब यही है कि असम में जहाँ 10.5 लाख बगानियार काम करते हैं, जहाँ उत्पादन में 40% की गिरावट आई है वहाँ सरकारी रवैये और जागरूकता के कारण श्रमिकों को 40% बोनस मिलता है और सभी श्रमिक नियमित कार्य करके राज्य के उत्पादन में अपना योगदान दे रहे हैं। वहीं सिर्फ 20% उत्पादन की गिरावट वाले पश्चिम बंगाल में श्रमिक 16% बोनस निर्णय से सड़कों पर उतर कर आंदोलन करने के लिए मजबूर हैं।
जाहिर है कि इसका सीधा असर चाय पत्ती के सीजन पर उत्पादन में पड़ेगा। राज्य सरकार की अदूरदर्शी, लापरवाही और मजदूर विरोधी नीतियों के कारण राज्य के चाय उत्पादन पर न सिर्फ असर पड़ रहा है, बल्कि राज्य के चाय उद्योग खत्म होने के रास्ते पर अग्रसर हो रहा है। सरकार प्रमुख चाय क्षेत्र में आकर कहतीं हैं कि सरकार बोनस के मुद्दे पर कोई हस्तक्षेप नहीं करेगी, उसे श्रम दफ्तर देखेगा। लेकिन श्रम दफ्तर का इतिहास देखकर यही लगता है कि यह विभाग समस्याओं को पहले से सुलझाने में विश्वास नहीं करता है। जब आग लग जाती है तो वह बाल्टी में पानी लेकर बुझाने की चेष्टा करता है। अधिकतर मामले में वह अपने दफ्तर पर मालिक और ट्रेड यूनियन को बुला कर सिर्फ वार्ता करवाता है। संविधान और तमाम नियमों के अधीन मिले अदिकारों को वह यूज करके निर्देश देने जैसे कार्य नहीं करता है। ऐसा लगता है राज्य में चाय उद्योग के श्रम विभाग का कार्य सिर्फ द्विपक्षीय वार्ता करवाना ही रह गया है।
प्लानटेशन लेबर एक्ट, मेडिकल एक्ट, फैक्टी एक्ट और तमाम अन्य एक्टों के अनुसार श्रम विभाग का कार्य चाय बागानों में काम के घंटे पर नज़र रखना, कानूनी मजदूरी दर लागू करवाना, अन्य देय भुगतान को दिलवाना, आवास सुविधाएं का रिकार्ड रखना और उसका सर्वे करना, मजदूरों के चिकित्सा देखभाल पर नज़र रखना, सरकार द्वारा घोषित जीवन रक्षा दवाईयों की उपलब्धता सुनिश्चित करना, डाक्टर और नर्सों, लेबर अफिसर आदि के शिक्षा और प्रशिक्षण के कागजातों की जाँच करना, अस्पतालों के ढाँचागत आधारभूत सुविधाओं को जाँचना, छुट्टी के प्रावधान और सुरक्षा उपायों जैसे पहलुओं का आकलन रखना, फैक्ट्री और चाय बागानों के कार्यस्थानों में सुरक्षा और मजदूर सुविधाओं का आकलन करना आदि कई अनिवार्य कार्यों को अपने संवैधानिक जिम्मेदारी से करना और उसकी नियमित रिकार्ड रखना है। लेकिन पश्चिम बंगाल के चाय बागानों के देख कर कोई भी कह सकता है कि राज्य के श्रम दफ्तर अपने इन कार्यों को नहीं कर रहा है और न ही इस विभाग को इस कार्यों को करने में कोई रूचि है। ऐसा नहीं है कि राज्य के श्रम मंत्री और मुख्यमंत्री को इसकी जानकरी नहीं है। ये दोनों मंत्री पिछले 14 सालों में कई बार चाय बागानों के विभिन्न हिस्सों की परिदर्शन कर चुके हैं और उनके साथ राज्य के श्रम दफ्तर के अफसर और इंस्पेक्टर भी साथ में चाय बागानों के असली हालातों को कई बार देख चुके हैं। लेकिन उनका कार्य व्यवहार नॉन प्रोफेशनल का रहा है।
डुवार्स तराई के बागानों के लिए 16% निर्णय होने के बाद पहाड़ के बगानियार जब 20% बोनस के लिए कमर कस लिए हैं तो बोनस मुद्दे पर हस्तक्षेप करने से इंकार करने वाली राज्य की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की का श्रम विभाग के रास्ते फरमान आया है कि पहाड़ के मजदूरों को भी 16% बोनस दिया जाए। मतलब साफ है सरकार एक ही पैमाने से मैदान और पहाड़ के चाय बागानों को देखती है और इसके बीच के अंतर को वह समझने में असफल है। पहाड़ के उत्पादित चाय की कीमत बाजार में सबसे अधिक होता है। जाहिर है कि कंपनियों को वहां के चाय की बदौलत अधिक मुनाफा प्राप्त होता है। जबकि पहाड़ के बगानियारों को भी वही 250 रूपये हजीरा मिलता है। जबकि बोनस मुनाफा शेयर करने का एक रास्ता है।
पहाड़ के चाय बागान मुश्किल भरे भौगोलिक स्थानों में स्थित हैं। ऊंची नीची पहाड़ियों में हर जगह पत्तियाँ ढोने वाली गाड़ियाँ नहीं जाती हैं बगानियार को ही चाय की पत्तियों को ढोकर नीची जगहों से ऊँची जगहों में लाना पड़ता है। पहाड़ के मजदूरों को मैदान की अपेक्षा अधिक सावधानी और परिश्रम से कार्य करना पड़ता है। तो जाहिर है वहाँ मजदूर यदि 20% बोनस देने की मांग कर रहे हैं तो वे कोई अन्याय नहीं कर रहे हैं। फ्रिंज बेनेफिट्स देने के नाम पर प्रबंधन पहले ही हर महीने 20% राशि बोनस के अकाउंट में रखता है। बोनस के मुद्दे पर हस्तक्षेप करने से इंकार करने वाली सरकार ने क्यों अपनी नीतियों पर पलटी मारी और बोनस पर निर्देश देने लगी। यही सरकार न्यूनतम वेतन मुद्दे पर क्यों चाय उद्योग को कोई निर्देश नहीं दे पा रही है? सरकार न तो फ्रिंज बेनेफिट्स पर चाय बागानों को कोई निर्देश देती है और न अन्य किसी मुद्दे पर तो यह सरकार सिर्फ बोनस पर ही क्यों निर्देश दे रही है?
पहाड़ के बगानियारों की 20% मांग की जगह बंदरहाट ब्लॉक के एंड्रयू यूल के मजदूर एक किस्त में 16% बोनस की मांग कर रहे हैं। लेकिन कोलकाता से कोई सरकारी हस्तक्षेप की यहां कोई खबर नहीं है। वहीं नगेसरी और किलकोल चाय बागान के श्रमिक 16% बोनस की मांग कर जिलाधिकार के कार्यालय तक पहुँच गए, लेकिन वहाँ जिला के अधिकारी उनसे बोनस पर बात नहीं करके अन्य समस्याओं पर बातचीत कर रहे हैं। खबर है कि इन बागानों के 12 करोड़ रूपये पीएफ एकाउंट के बकाया है। इतने रूपयों के बकाया पर राज्य सरकार और श्रम दफ्तर क्या कदम उठा रहा है यह भी स्पष्ट नहीं है। सबसे बड़ा सवाल यही है कि राज्य सरकार को संवैधानिक और अन्य कानूनों की कितनी परवाह है? पहले श्रम दफ्तर ने असम राज्य की तरह बोनस पर कोई परामर्श नहीं दिया। अब वह चाय उद्योग को परामर्श दे रहा है। लेकिन यही श्रम दफ्तर पीएफ, ग्रेज्युएटी, फ्रिंज बेनेफिट्स, प्रोरेटा, न्यूनतम वेतन, महंगाई दर, अस्पताल, डाक्टर, नर्स, कार्यस्थल पर सुविधाएँ आदि पर कोई परामर्श जारी नहीं करता।
सरकार की आधे आधूरी, ढूलमूल रवैया ने चाय बागान को शोषण का सबसे बड़ा जरिया बना कर रख दिया है और आज चाय बागानों में कोई कार्य करना नहीं चाहता है और अधिक वेतन के लिए वे देश के अन्य भागों में जाकर कार्य करना पसंद करते हैं। ऐसी स्थिति लाने के लिए सबसे बड़ा दोषी राज्य का श्रम दफ्तर ही है। किलकोट और नगेसरी चाय बागान के मजदूर तो बागानों की बूरी व्यवस्था के लिए बागान प्रबंधन को बदलने की मांग कर रहे हैं, लेकिन यहां राज्य सरकार के श्रम दफ्तर और सरकार को बदलने की जरूरत है, जिसके बदले बिना व्यवस्था नहीं बदलेगी। पश्चिम बंगाल का चाय उद्योग अधोगति की ओर जा रहा है और चाय उद्योग की बर्बादी के लिए राज्य सरकार की नीतियाँ ही जिम्मेदार है।
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