ट्रेड यूनियन और राजनैतिक पार्टियों का अस्तित्व होता है अलग-अलग
ट्रेड यूनियन और राजनैतिक पार्टियों का अस्तित्व होता है अलग-अलग। चाय बागान का जब कोई श्रमिक किसी नये ट्रेड यूनियन में जाता है तो वह कहता है कि उसने फलाना पार्टी में ज्वाईन किया। कई लोगों को मालूम नहीं होता है कि ट्रेड यूनियन अलग है और राजनैतिक पार्टी अलग। वे किसी पार्टी से संबंद्ध ट्रेड यूनियन को ही राजनैतिक पार्टी समझ लेते है। जानकारी नहीं होने के कारण से लोगों को राजनैतिक पार्टी अपने पार्टी के कार्यक्रम, मिटिंग, रैली आदि के उद्देश्यों के लिए यूज करता है। जबकि वह राजनैतिक पार्टी का सदस्य होता है न ही उसका कार्यकर्ता।
वास्तव में चाय बागान एक औद्योगिक कृषि क्षेत्र है। कानून के अनुसार यहाँ किसी राजनैतिक दल का कोई काम नहीं है। औद्योगिक क्षेत्र में मान्यता प्राप्त ट्रेड यूनियन के सदस्यों द्वारा चयनित प्रतिनिधि ही मजदूरों के असली प्रतिनिधि होते हैं। वे मजदूरों के किसी भी मामले पर मजदूरों की ओर से मालिक और सरकार से बात करते हैं। मजदूरों के मामले पर ट्रेड यूनियन नेता को छोड़ कर, किसी भी अन्य व्यक्ति चाहे वह किसी भी पार्टी का नेता हो, यदि वह ट्रेड यूनियन के साथ नहीं जुड़ा है, तो वह मजदूरों के अधिकारों के बारे सीधे बात नहीं कर सकता है। मजदूरों के मामले पर दखल देने का अधिकार ट्रेड यूनियन को है, किसी राजनीति पार्टी को नहीं। यह जरूरी नहीं है कि कोई ट्रेड यूनियन किसी राजनैतिक पार्टी से जुड़ा हो। बिना राजनैतिक पार्टी के भी ट्रेड यूनियन औद्योगिक क्षेत्र में कार्य कर सकता है। पश्चिम बंगाल के चाय बागान क्षेत्र में कई ट्रेड यूनियन ऐसे हैं, जिनका किसी भी पार्टी से कोई सीधा कानूनी संबंध नहीं है। ट्रेड यूनियन के बिना किसी भी पार्टी का चाय बागान क्षेत्र में कोई काम नहीं है।
लेकिन चाय अंचल में 15 लाख से अधिक वोटर बसते हैं। इन वोटरों को अपनी पार्टी के स्थायी वोटर बनाए रखने के लिए राजनैतिक पार्टियाँ ट्रेड यूनियन बना कर बागानों ट्रेड यूनियन के भेष में कार्य करते हैं। मूल रूप से मजदूर ट्रेड यूनियन के सदस्य होते हैं, वे किसी पार्टी के सद्स्य या कार्यकर्ता नहीं होते हैं। हाँ ट्रेड यूनियन के कुछ पदाधिकारी किसी पार्टी के सदस्य या पदाधिकारी होते हैं, और असल में सिर्फ ऐसे लोग ही किसी पार्टी से जुड़े होते हैं।
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राजनैतिक पार्टी के कई नेता श्रमिक यूनियन से जुड़े होते हैं। यदि ऐसे नेतागण ईमानदार होते हैं तो वे मजदूरों के पक्ष में कार्य करते हैं। लेकिन अधिकतर राजनैतिक पार्टी अपने पार्टी के स्वार्थ के सामने और किसी का स्वार्थ नहीं देखते हैं।
चाय बागानों के ट्रेड यूनियन से जुड़े राजनैतिक नेतागण अधिकतर चाय बागानों के बाहर के नेता हैं और वे चाय बगानियारों के हित में पूरी ईमानदारी से शायद ही कार्य करते हैं। यदि राजनैतिक पार्टी वाले पूरी तरह चाय बगानियारों के प्रति समर्पित होते तो पीएफ, ग्रेज्युएटी घोटाला, पीएफ दलाल, फ्रिंज बेनेफिट्स नहीं देने वाले बागान मैनेजमेंट के विरूद्ध में विधानसभा में लगातार आवाज़ उठाते, शोषण और अत्याचार करने वाले मालिकों के विरूद्ध में थाने में एफआईआर दायर कराते, लेबर कोर्ट, हाईकोर्ट में जाकर मजदूरों के संवैधानिक अधिकारों के हनन पर केस दायर करते, मजदूरों को महंगाई भत्ता दिलाने, साप्ताहिक अवकाश, विभिन्न परब त्यौहारों पर मिलने वाले छुट्टी के दिन के लिए मजदूरी प्राप्त करने के लिए संवैधानिक और कानूनी लड़ाई लड़ते, आंदोलन करते, हड़ताल करते, सार्वजनिक बंद बुलाते। आंदोलन और हड़ताल करना, गलत श्रम संबंधी व्यवहार और नीतियों का विरोध करना, मजदूरों के न्याय के लिए कानून में दिखाए गए संघर्ष का रास्ता अपनाना आदि मजदूरों को प्राप्त संवैधानिक और कानूनी अधिकार है।
लेकिन पिछले सत्तर, पच्छत्तर सालों में देखा गया है कि ये राजनैतिक दल वाले मजदूरों के वोट तो लेते हैं, लेकिन वास्तविक रूप से न्यायपूर्ण अधिकार देने के लिए कुछ भी नहीं किए हैं। आज भी मजदूरों को सिर्फ दो सौ पचास रूपये हजीरा देकर उनका आर्थिक शोषण किया जा रहा है। पिछले बीस पच्चीस सालों से अधिकतर चाय बागानों में फ्रिंज बेनेफिट्स ठीक से नहीं दिए जा रहे हैं। अधिकतर अस्पतालों में एमबीबीएस डाक्टर और प्रशिक्षित नर्स और ट्रेन कम्पाण्डर नहीं हैं। बगानियारों को समय पर स्वास्थ्य सेवा का लाभ नहीं मिलने के कारण जान गंवानी पड़ती है। बिजली, पानी, सड़क. शिक्षा जैसे आवश्यक सेवाओं के लिए बगानियार तरसते रहते हैं। लेकिन पोलिटिकल पार्टी वाले कभी भी उनके लिए कोई कानूनी लड़ाई कभी किसी कोर्ट में नहीं लड़ते है। वे अपनी पार्टी के ट्रेड यूनियन में सक्षम नेतृत्व को प्रोत्साहित नहीं करते हैं और अधिकतर जी हुजूर वाले ट्रेड यूनियन नेताओं को ही पदाधिकारी बनाते हैं।
ट्रेड यूनियन और राजनैतिक पार्टी के नेतागण क्या नीति अपनाते हैं, यह जानना बहुत जरूरी है। चाय बागानों में स्थानीय ट्रेड यूनियन नेतागण सक्षम नहीं होने के कारण वे कानूनी लड़ाईयों के लिए अपनी संबद्ध राजनैतिक पार्टी के नेताओं के सामने नतमस्तक होकर उन्हें समस्या के समाधान के लिए अनुरोध करते हैं।
लेकिन बड़े महानगरों के हेडक्वार्टर से चलाए जाने वाले पोलिटिकल पार्टियों के नेता या पार्टी के मालिकों का बगानियारों का कोई लेना देना नहीं होता है। वे कभी बागानों में आकर उनकी समस्याओं को समाधान नहीं करते हैं। अधिकतर नेताओं का संबंध चाय बागानों के मालिक और उद्योगपतियों से होता है। चाय बागान मालिकों के बिना आंदोलन के ही उन्हें टी टूरिज्म का तोहफा मिल गया है। उन्हें 150 एकड़ जमीन पर अन्य बिजनेस करने का अधिकार भी मिल गया है। लेकिन पिछले पंद्रह वर्ष तक मांग करने के बावजूद मजदूरों को न्यूनतम वेतन नहीं मिला है। बागान मालिक पीएफ का रकम हड़प ले, वह ग्रेज्युएटी न दे, वह फ्रिंज बेनेफिट्स न दे, लेकिन राजनैतिक पार्टी और सरकार उनके विरूद्ध कोई दंडात्मक कदम नहीं उठाएँगे। लेकिन यदि मजदूर कोई गलती कर दे तो उन्हें काम से निकाल दिया जाता है और क्वार्टर खाली करने का नोटिस तुरंत आ जाता है।
इस तरह एक नहीं सैकड़ों उदाहरण से यह साबित हो चुका है कि राजनैतिक पार्टियों का संबंध मालिकों से ज्यादा मधुर होता है। उन्हें मजदूरों के दुख तकलीफ से कोई लेना देना नहीं होता है। उनका लेना देना तो मालिकों से होता है। बागान मालिक नेताओं के साख दोस्त होते हैं।
असल में राजनैतिक पार्टी क्या होता है? यदि इसे चाय बागानों के संदर्भ में इसके व्यवहार को देख कर कहा जा सकता है कि ये पार्टियाँ महानगरों में रहने वाले बड़े-बड़े नेताओं के जेब में समाए हुए प्राईवेट लिमिटेड कंपनी होता है। जिसका खास मकसद अपने पोलिटिकल पावर को बढ़ा कर अपने हित की रक्षा करना होता है। अपने पावर को बढ़ाने के लिए लोकतंत्र में वोट हासिल करना और सत्ता प्राप्त करके अपने हित को पूरा करना ही राजनैतिक पार्टियों का मुख्य उद्देश्य होता है। इन पार्टियों के बड़े नेताओं के लिए किसी चाय बगानियार मजदूर या कार्यकर्ता का कोई महत्व नहीं होता है। यदि वे उन्हें महत्व देते तो आज जितनी गरीबी, बदहाली और वंचित होकर बगानियार जीवन जी रहा है, वह नहीं होता। राजनैतिक पार्टियाँ चुनावों में करोड़ो रूपये खर्च करती है, जाहिर है कि वह बगानियारों के चंदे से कभी भी पूरा नहीं होगा। बगानियारों को जानना चाहिए कि पोलिटिकल पार्टी वालों को जहाँ से पैसा मिलता है, वे उन्हीं लोगों का ही हित रक्षा करेंगे, न कि बगानियारों का?
बागान एरिया में चुनाव होने पर राजनैतिक पार्टी वाले न्यूनतम वेतन पर कोई बात नहीं करते हैं? वे सिर्फ सड़क, पुल, रास्ता घाट, स्कूल कालेज की बातें करते हैं और बगानियारों के वोट मांगते हैं। सड़क, पुल, स्कूल, रास्ता घाट बनाने के लिए तो हर राज्य की राजधानी और राष्ट्रीय स्तर पर केन्द्र में मंत्रालय बने हुए हैं। इन कार्यों के लिए मंत्रालयों को बजट मिलते हैं। विकास की योजनाओं को जिलाधिकारी, जिला परिषद और पंचायत समिति के माध्यम से पूरा किया जाता है। यदि कहीं विकास की योजनाओं में कमी है तो राजनैतिक पार्टियाँ उसे सरकार के ध्यान में लाती है। नेतालोग खुद इन कार्यों को नहीं करते हैं। विकास योजनाओं का कार्यान्वयन प्रशासन करता है, राजनैतिक पार्टी नहीं।
लेकिन न्यूनतम वेतन तो एक संवैधानिक अधिकार और न्याय है। यदि न्यूनतम वेतन नहीं मिल रहा है तो इसके लिए राज्य की नीति, कानून और सरकार जिम्मेदार है। इसके लिए सबसे ज्यादा सरकार को चलाने वाली राजनैतिक पार्टी जिम्मेवार है। ऐसी पार्टी की सरकार संविधान और कानून का उल्लंघन करके अनैतिक रूप से गरीब मजदूरों के आर्थिक शोषण में सहभागी बनी हुई है। ऐसी सरकारों को शोषक, कमजोर और जनता विरोधी सरकार कहा जाता है।
जिस काम को जिला परिषद और पंचायत करते हैं, उस काम पर भाषण झाड़ कर नेतागगम वोट मांगते हैं और मजदूरों को बेवकूफ बनाते हैं। ये पार्टियाँ हर चुनाव में मजदूरों को न्याय देने की बातें करती हैं, लेकिन चुनाव के बाद ये लोग सब बातों को भूल जाते हैं। वे चाहते तो विधानसभा, लोकसभा, राज्य सभा में न्यूनतम वेतन और मजदूरों के शोषण की बात को लगातार उठाते। सरकार द्वारा बातें नहीं सुनी जाने पर कोर्ट जाते। लेकिन वे ऐसा नहीं करते, क्योंकि महानगरों में रहने वाले राजनैतिक पार्टियों के मालिकों को मजदूरों के शोषण से कोई दुख नहीं होता है। वोट पाने के बाद वोट मांगने वाले दर्जनों नेतागण कभी भी चाय बागानों में नहीं आते न ही वे मजदूरों के हित के लिए कोई ठोस काम करते।
पश्चिम बंगाल के चाय मजदूरों के न्यूनतम वेतन पर एक मामला कोलकाता हाईकोर्ट के जलपाईगुड़ी बेंच में चल रहा है। जो रजिस्टर्ड ट्रेड यूनियन हैं वे इस मामले में मजदूरों की ओर कैवियेट आवेदन जमा करके न्यूनतम वेतन पर एक पक्ष बन सकते हैं। पिछले सौ साल से न्यूनतम वेतन से वंचित चाय मजदूरों को न्यूनतम वेतन दिलाने का यह सबसे सहज और सीधा रास्ता है। लेकिन इतनी सी छोटी सी बात को भी कोई ट्रेड यूनियन के लोग नहीं कर रहे हैं। ये ट्रेड यूनियन को कोलकाता और दिल्ली के पार्टी के ठेकेदार मालिक लोग चलाते हैं और वहीं से वे लोग स्थानीय नेताओ को डायरेक्शन देते हैं। कोलकाता और दिल्ली के पार्टी के ठेकेदार लोग नहीं चाहते कि चाय बागान के मजदूरों को न्यूनतम वेतन मिले। न्यूनतम वेतन मिलने से चाय बागान के मालिकों का मुनाफा घट जाएगा और उन्हें डर है कि इससे उन्हें आर्थिक नुकसान हो जाएगा। जी हाँ मजदूरों को 700 रूपये दैनिक वेतन मिलने से बगानियारों का लाभ और मालिक का नुकसान होगा। यही वह डर है जो ट्रेड यूनियन और राजनैतिक पार्टियों के नेताओं को कोर्ट में जाकर मजदूरों की ओर से दखल देने को रोक रहा है।
शायद यही मुख्य कारण है कि चुनाव में राजनैतिक पार्टियों के नेतागण रास्ता घाट, पुल की तो बात करते हैं, लेकिन न्यूनतम वेतन, मजदूरों के घर बारी के जमीन का मालिकाना हक वाला खतियान, फ्रिंज बेनेफिट्स, पीएफ, ग्रेज्युएटी की बातें नहीं करते हैं।
न्यूनतम वेतन न देकर चाय बगानियारों का भयानक शोषण किया जा रहा है। उन्हें गरीब, लाचार, मजबूर बना कर रखा गया है। इसे सत्ताधारी पार्टियों द्वारा अपनी सरकार और कानून की मदद से किया जा रहा है। कानून बनाने, लागू करने में सरकार और राजनैतिक दलो का हाथ होता है। संविधान के अनुच्छेद 43 के तहत राज्य सरकार कभी भी नोटिफिकेशन निकाल कर बगानियारों को न्यूनतम वेतन दे सकती है। इसके लिए सताधारी पार्टी कदम बढ़ा सकती है। इससे बगानियारों को संवैधानिक और कानूनी रूप से शोषण से बचाया जा सकता है। लेकिन पिछले 9 वर्ष से राजनैतिक पार्टी वाले जिसमें सभी पार्टी के नेतागण शामिल हैं, बगानियारों के न्यूनतम वेतन को अटका कर रखा गया है। न्यूनतम वेतन का मामला कोर्ट में चले जाने पर भी ये पार्टी वाले निर्लज्ज बन कर कोर्ट में नहीं जा रहे हैं और मजदूरों के शोषण में अपनी सक्रिय भागीदारी निभा रहे हैं। राजनैतिक पार्टियाँ वोट तो बगानियारों से लेता है, लेकिन वे कभी उनका भला नहीं करती। कोलकाता और दिल्ली के पार्टियों के मालिक नहीं चाहते कि बगानियारों की गरीबी दूर हो। वोट के ठेकेदार सिर्फ वोट लेकर निकल जाते हैं और वे बगानियारों के हित के बारे कभी नहीं सोचते।
बगानियारों को जानना चाहिए कि वोट उनका अधिकार है और वे अपने वोट से सही, ईमानदार और कर्मठ नेता का चुनाव कर सकते हैं। पिछले 77 सालों से राजनैतिक पार्टियों ने उन्हें थोखा दिए हैं। चुनाव के समय उन्हें धोखा देने, उनको भरमाने के लिए पूरे राज्य और देश के कोने-कोने से नेतागण आते हैं। लेकिन एक बार वोट हो जाता है तो कोई झांक कर भी देखने नहीं आते। वे चाहें तो इस स्थिति को बदल सकते हैं।
यदि बगानियार वोटर चाहते कि मजदूरों को दैनिक 700 रूपये हजीरा मिले। वे भी आर्थिक रूप से संपन्न बनें और खुशहाल बनें। उनका आर्थिक शोषण बंद हो। तो इसके लिए उन्हें राजनीति तथा अपने वोट को सबसे बड़ा संवैधानिक हथियार बनाना होगा। वे राजनैतिक दलों को वोट देना बंद कर देंगे तो राजनैतिक पार्टियों की चालाकी धरी की धरी रह जाएगी। वे किसी स्थानीय शिक्षित और ईमानदार निर्दलीय को अपना वोट देकर उन्हें चुनाव में विजयी बनाएँ। इससे राजनैतिक दलों को झटका लगेगा। वे अपने सत्ता, पावर और अस्तित्व को बचाने के लिए बगानियारों के हित में कुछ काम करेंगे। याद रखें, जब कोई अपने अधिकार की प्राप्ति के लिए कानून का सहारा लेता है तो संविधान और कानून उसे न्याय देता है। वोट भी न्याय पाने का एक रास्ता है। यदि राजनैतिक पार्टी के ठेकेदार मालिक लोग चालाक हैं तो बगानियारों को उससे भी अधिक चालाक और होशियार बनने की जरूरत है। उन्हें अपने वोट की कीमत की रक्षा करना है।
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