मीडिया की शक्ति से अन्जान जागरूकहीन समाज
नेह इंदवार
मीडिया की व्यक्तिगत शक्ति, सरकारी की सामूहिक शक्ति (सेना, पुलिस, कानून) से अधिक बलशाली होती है। मीडिया की शक्ति को सभ्यता के इतिहास में संचार, शिक्षा और प्रभाव के लिए एक महत्वपूर्ण उपकरण के रूप में मान्यता दी गई है। प्राचीन काल से, मौखिक परंपराओं, लिखित ग्रंथों और बाद में, मुद्रित सामग्रियों ने विचारों, धार्मिक विश्वासों और सांस्कृतिक मूल्यों को फैलाकर समाजों को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
15वीं शताब्दी में प्रिंटिंग प्रेस के आविष्कार ने एक प्रमुख मोड़ को चिह्नित किया, जिसने सूचना के बड़े पैमाने पर वितरण को सक्षम किया और ज्ञान के प्रसार को तेज किया, जिससे महत्वपूर्ण सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक परिवर्तन हुए, जैसे कि सुधार और ज्ञानोदय। यूरोप में पुनर्जागरण के आंदोलन को प्रिंटिंग प्रेस और प्रेस से निकलने वाली मुद्रित सामग्रियों ने अपूर्व समर्थन दिया और पुनर्जागरण के सामने आने वाली तमाम बाधाओं को मीडिया की शक्ति ने रौंद कर दूर कर दिया था।
दुनिया की तमाम सरकारें मीडिया को अपने मुट्ठी में रखने के ख्याल से बाहर निकल नहीं पाती हैॆ। इसीलिए वह कभी क्वलिटीपूर्ण स्तरीय, क्रिटिकल अखबार, पत्रिकाएँ, रेडियो, दूरदर्शन निकाल नहीं पायी, क्योंकि सृजनात्मकता किसी सरकारी विभाग की बपौती नहीं रही है। हाल तक दूसरी और तीसरी दुनिया की सरकारें मीडिया के बल पर अपना राजपाट संभालने की जतन करती रही हैं। जब तक मीडिया में नयी तकनीकी नहीं आई थी, अनेक देशों में सरकारें ही न्यूज मीडिया का संचालन करती थीं। भारत में ‘ऑल इंडिया रेडियो’ और टेलिविजन चैनल ‘दूरदर्शन’, सरकार द्वारा संचालित किया जाता था और उसमें एक निश्चित सरकारी सीमा के अंदर न्यूज और व्यूज का प्रसारण किया जाता था। मीडिया के इस प्रवाह में विरोधी विचारों, दर्शनों, विपक्षी जनता के सरकार विरोधी आंदोलनों के लिए कोई स्थान नहीं होता था।
हालांकि भारत में अखबार 29 जनवरी 1780 से ही प्रकाशित होता आ रहा है। लेकिन इसके न्यूज और व्यूज संकलन में सिर्फ मुट्ठी भर कुछ खास समुदायों का एकाधिकार रहा है। पिछड़े समाज के शिक्षितों का न्यूज और व्यूज संकलन और प्रस्तुतिकरण में अघोषित रूप से प्रवेश निषेध किया हुआ है। जब प्राईवेट टेलिविजन चैनल का जमाना आया तो परिवर्तन पसंद लोगों का हुजुम उधर चला गया। मीडिया की शक्ति से परिचित पूँजीपतियों ने प्रिंट मीडिया के बाद इलेक्ट्रोनिक मीडिया को भी अपनी मुट्ठी में बंद करने लगे। भारत में पूँजीवाद गाँवों तक जड़ जमाने लगी थी और उसके लिए अखिल भारतीय स्तर पर समर्थन जुटाने के लिए पूँजीपतियों ने जनमत को अपने फेवर में रखने के लिए तबाड़तोड़ अखबार और टेलिविजन चैनल सहित रेडियो चैनलों को अपनी मुट्ठी में जकड़ने लगे थे।
देश में पूँजीवाद को विभिन्न क्षेत्रों से चुनौती मिल रही थी और आर्थिक व्यवस्था में कौन सी वाद भारत के लिए उपयुक्त है, यह विमर्श दशकों तक चल रहा था। यहाँ तक कि राजनैतिक पार्टी और नेताओं ने भी जनमत को कंट्रोल करने के लिए मीडिया के क्षेत्र में कूद पड़े। मीडिया की तरह ही दशकों तक राजनीति में भी सवर्णवाद का ही बोलबाला चलता रहा है और मीडिया और राजनीति का गठजोड़ भारत में सवर्ण राज कायम करने में कोई कोर कसर नहीं रखा। जब तक सोशल मीडिया का जमाना नहीं आया, जनता बेचारी पूँजीपतियों और सरकारों के सूचना तंत्र का गुलाम बनी रही। आज आईटी और सोशल मीडिया का जमाना आया है, लेकिन पूँजीहीन पिछड़े समाजों के पास आज भी मीडिया की शक्ति नहीं है। जबकि आज इस संचालित करने के लिए बहुत बड़ी पूँजी की जरूरत भी नहीं है। भारत की आदिवासी और दलित समूह तो गरीब है ही, यहाँ तक कि अन्य पिछड़ा वर्ग का भी कोई नियोजित संगठित मीडिया आवाज़ कहीं नहीं है।
राजाओं, सरकारों, पूँजीपतियों, शासकों और वर्चस्वशाली समुदायों ने पिछड़े समाजों को मीडिया और शिक्षा के हर स्किल्स, तकनीकी से वंचित रखा। इन विषय के शिक्षा और प्रशिक्षण को भी महंगा बनाए रहे। लेकिन सोशल मीडिया ने आम जनता विशेष कर संघर्षशील और पिछड़े समुदायों के हाथों में एक बारगी ही बहुत शक्तिशाली, बलशाली हथियार को थमा दिया। यह विचारों को संतुलित रूप से रखने में कहीं कोई सेंसर नहीं है। सेंसरहीन अवस्था में स्वतंत्र लेखन की कोई सीमा भी कहीं नहीं है।
युगों तक मीडिया की शक्ति से वंचित समुदायों के पास सोशल मीडिया की पहुँच हो गई है। लेकिन भारतीय वंचित समूहों के नेता, शिक्षित लोग उसे अपने हित में उपयोग करने में आज भी बहुत फिसड्डी साबित हो रहे हैं। पूरे भारतीय परिदृष्य में सर्वस्वीकृत सृजनशील पिछड़े समाज की आवाज़ कहीं सुनाई या दिखाई नहीं देती है।
फेसबुक के कारण 2011 में ट्यूनेशिाय से शुरू होकर अरब स्प्रिंग आंदोलन उतरी अफ्रिका और मिडिल ईस्ट में छा गया और इजिप्ट में सत्ता परिवर्तन हो गया। ईरान में लड़कियों ने स्त्री अधिकार के लिए सरकार को पसीने से नहला दिया। अमेरिका से शुरू हुए मी टु और ब्लैक लिव मैटर ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हलचल मचा दिया। भारत में ब्राह्मणवाद में जकड़ी भेदभावकारी ऊँच-नीच की अमानवीयता से परिपूर्ण मानसिकता को पिछड़े समाज की स्वतंत्र पूजा पद्धति, ग्रामीण जीवन में आदिवासी धर्महीन जीवन पद्धित, स्वतंत्रता चिंतन और नास्तिकता के विचारों ने हिला कर रख दिया है।
धर्म को राजनीति की धूरी बनाने की हर कवायद को प्रगतिशील पसंद विचारों ने चुनावों में पराजित करके देश को ईरान, ईराक, पाकिस्तान बनने से रोक कर रखा हुआ है। लेकिन आर्थिक व्यवस्था को लूटतंत्र में बदलने से रोकने में आज भी भारतीय जनता कमजोर सिद्ध हुई है और देश किसी बदहाल अफ्रीकी देश बनने की ओर अग्रसर हो रहा है, जहाँ देश की 70 प्रतिशत सम्पदा पर दो प्रतिशत लोगों का कब्जा हुआ जा रहा है।
मीडिया पिछड़े या अविकसित समाजों में सामाजिक और आर्थिक विकास के लिए एक शक्तिशाली उत्प्रेरक के रूप में कार्य कर सकता है। मीडिया शिक्षा और सूचना तक पहुँच प्रदान करता है, व्यक्तियों को ज्ञान से सशक्त बनाता है जो उन्हें सूचित निर्णय लेने, उनकी आजीविका में सुधार करने और नागरिक जीवन में भाग लेने में मदद कर सकता है। यह सामाजिक परिवर्तन को बढ़ावा देकर पारंपारिक सामाजिक मानदंडों को चुनौती दे सकता है और लैंगिक समानता, मानवाधिकार और लोकतंत्र जैसे प्रगतिशील मूल्यों को अपनाने को प्रोत्साहित कर सकता है, जिससे सामाजिक सुधार हो सकते हैं। यह नई प्रौद्योगिकियों, व्यावसायिक प्रथाओं और कृषि पद्धतियों को बढ़ावा देकर, मीडिया पिछड़े समाजों में आर्थिक वृद्धि और विकास में योगदान देने के साथ राजनीतिक सशक्तिकरण के लिए एक कामयाब उपकरण हो सकता है, जो जनमत को संगठित करने, नीतिगत बदलावों की वकालत करने और सरकारों को जवाबदेह ठहराने में मदद कर सकता है।
तथापि भारतीय पिछड़े समाजों में मानसिकता आज भी पिछड़ी रूप से परंपरा में जकड़ी हुई मानसिकता से ग्रस्त है और इसमें परिवर्तन नाममात्र की हुई है। सवर्ण हित के संरक्षक के रूप में यहाँ सरकारें एक से एक बहुसंख्यक जनता के हित विरोधी निर्णय लेती रही है। पिछड़े समाजों के एक-एक अधिकारों पर नियंत्रण रखने की चाल चली जा रही है। चुनाव और लोकतंत्र को जेब तंत्र, लाठी तंत्र बनाया जा रहा है। वहाँ सोशल मीडिया की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होकर सामने आती है। पूँजीहीन प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक मीडिया से वंचित पिछडे़ समाज में सोशल मीडिया एक सामूहिक तगड़ा आवाज़ बन कर सामने आ सकती है।
लेकिन यहाँ सरकार से लोहा लेने वाले, चिंतनपूर्ण किसी पोस्ट तक को लोग लाईक करने तक की जहमत नहीं उठाते हैं। उसे शेयर तक नहीं करते हैं। चाहे आम जनता के गले को कोई भी दबा दे विरोध में उठी आवाज़ को दबाने, कमजोर करने के लिए कोई नया शगूफा छोड़ दिया जाता है और लोकबाग का ध्यान को तुरंत दूसरी ओर मुड जाता है। पिछड़े समाज के हजारों लोग अधिकार ध्वाजों को थामें समाज और परिदृष्य में नया प्रकाश लाने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन 100 करोड़ जनसंख्या कहे जाने वाले पिछड़े समाजों में फैली जागरूकहीनता की जड़ता टूटने का नाम नहीं ले रही है।
मीडिया की शक्ति को यहाँ सरकार और पूँजीपति और शासक वर्ग अपने हाथों से संचालित करते हैं और 140 करोड़ की जनता उसे अपने हित में प्रयोग करने में हमेशा चूक जाती है। उन्हें मीडिया की बरीकियों की कोई समझ ही नहीं है। भारत जैसे विशाल देश में जनमत कितना विशाल हो सकता है और यह जनमत देश में क्या-क्या सकरात्मक परिवर्तन कर सकता है ? इससे भारतीय विशेष कर यहाँ के तथाकथित ओबीसी, दलित और आदिवासी सिर्फ अन्जान हैं, बल्कि हद से भी अधिक पिछड़ी मानसिकता से घिरे हुए हैं।
उन्हें 5000 वर्षों तक दबाया गया है और आज वे शिक्षित होकर भी खुद दबे हुए रहना चाहते हैं। इतिहास से वे मीडिया की ताकत के बारे कोई सबक लेना नहीं चाहते हैं। उन्हें मीडिया की तकनीकी समझ नहीं आती है। वे कल भी पिछड़े दिमाग से जिंदगी जी रहे थे, वे आज भी वही जिंदगी जी रहे हैं। लगता है भविष्य में भी वे वही लकीर के फकीर बने रहेंगे।
उन्हें मीडिया और मीडिया को सतह पर लाने वाले आईटी तकनीकी से ही नहीं, बल्कि उन्हें नये-नये उभरे आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस से कोई उन्हें मतलब नहीं है। राजनैतिक, आर्थिक, मनोवैज्ञानिक एकता, सहयोग, और सामुहिक मुहिम के बारे उन्हें कुछ भी मालूम नहीं। मीडिया के जातिवादी, वंचितवादी मामलों के विश्लेषण से यही लगता है कि मीडिया की पूँजीवादी शासकवर्गीय सवर्णीय उपस्थिति को चुनौती देने में पिछड़े समाजों को अभी और एक सदी का समय लगेगा।
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